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जैन मतानुसार तप की ग्याल्या
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है। साधक हो या गृहस्थ, सेवा की सबको जरूरत है। किसी विषय का ध्यान या चिन्तन बह करता ही रहता सेवा पारस्परिकता का धर्म है। इसलिए साधकों के लिए है। इस प्रकार ध्यान के शुभ और अशुभ दो भेद हो जाते भी कहा गया है कि उन्हें अपने से ज्येष्ठ, श्रेष्ठ प्राचार्यों हैं। जिस ध्यान से साधक का कल्याण होता है, साधना उपाध्यायों, तपस्वियों की, बीमार-दुर्बल, ग्लान, बाल- प्रगति होती है वह शुभ है और जो ध्यान साधक को साधुनों की समान और नीचे की श्रेणी के साधुओं की, नीचे गिराता है उसे अशुभ कहते है। मार्त ध्यान और संध, कल, गण, मनोज्ञों की सेवा सुश्रुषा करनी चाहिए। रौद्र ध्यान प्रशुभ है। वैयावत्य के दस भेद माने गए है, लेकिन भाव यही है कि प्रातं ध्यान-संसार मे अनिष्ट योग, इष्ट वियोग, जिसको जैसी सेवा की जरूरत हो वैसी उसकी सेवा होनी बीमारी तथा किसी वस्तु की प्राप्ति की अभिलाषा प्रायः चाहिए। सेवा में अनासक्ति हो और अपनी मर्यादा का सब मे रहती है और उसके लिए लोग चिन्तित भी रहते भाव भी हो।
हैं। चित्त की ब्याकुलता या आकुलता ही प्रार्त ध्यान है । स्वाध्याय—स्वाध्याय का अर्थ है जिज्ञासा पूर्वक ज्ञान यह मनुष्य को अशुद्धि की ओर ले जाता है-नीचे गिरता की उपासना, चिन्तन । स्वाध्याय से ज्ञान बढ़ता है। है। प्रयत्नों के वावजुद भी अनिष्ट योग, इष्ट विवोग, आत्म-शक्ति बढती है और चारित्र निर्दोष होता है। बीमारी पाती ही है। इसे सर्वथा टालना सम्भव नहीं है। स्वाध्याय के पाँच प्रकार है। १. अनुभवियों के ग्रन्थो लेकिन विवेकपूर्ण प्रसंगों पर व्याकुल न होना और धीरज को या अर्थों को पढ़ना, .२. अधिक जानकारी से पूछना, पूर्वक सहन करना कर्तव्य है। अपनी पाक्ति को ऐसे ३. पढ़े हुए या सीखे हुए पाठ का बार-बार शुद्धता से विषयों में न लगाकर विकास की ओर ले जाने वाले उच्चारण करना और ५. धर्म का उपदेश करना । ज्ञान विषयों पर अपने चित्त को लगाना इष्ट है।। प्राप्ति करने, उसे निशंक बनाने, उदात्त और परिपक्व अपने को तथा दूसरों की पीड़ा पहुंचाने के लिए बनाने के लिए स्वाध्याय का बहुत महत्त्व है। स्वाध्याय चिन्तन करना, तरह-तरह की योजनाएँ सोचते रहना और से तेजस्विता तथा अनासक्ति पाती है।
चिन्ता में डूबे रहना पार्न ध्यान है । यह दुःख का हेतु है। व्युत्सर्ग-अहंकार आदि होने पर, खेत, धन, सपत्ति, इस ता त्याग हा दना चाहिए। कुटम्ब, परिवार की आसक्ति का त्याग बाह्य व्युत्सर्ग है।
रौद्र ध्यान-हिंसा, असत्य, चोरी तथा परिग्रह के राग-द्वेष, क्रोधादि विकारों का त्याग आभ्यन्तर व्युत्सर्ग १
लिए सतत चिन्ता करना रौद्र ध्यान है। रौद्र ध्यान का है। चित्त शुद्धि के लिए सब तरह की उपाधियो का त्याग
मूल आकार क्रूरता है। अपने स्वार्थ के लिए दूसरे का आवश्यक है। साधक सुबह-शाम, ममता-त्याग का प्रयत्न
अनिष्ट चिन्तन, दूसरों को फंसाने के लिए असत्य या और चिन्तन करता है।
बेईमानी के तरीके सोचना, दूसरे के घन के अपहरण के ध्यान-कर्म निर्जरा के लिए ध्यान का बहुत महत्व
मार्ग पर विचार करना तथा अपने परिग्रह की रक्षा की है । साध्य की प्राप्ति समता द्वारा ही हती है। ध्यान के चिन्ता करना, यह सब रोद्र ध्यान है। इससे मनुष्य नीचे बिना समता सम्भव नहीं। समता ध्यान से ही टिकती है, गिरता है। उसकी अवगति होती है और वह दुखी बनता बिना समता के साधक ध्यान का अधिकारी नहीं। इस है। इसलिए रौद्र ध्यान हे। कहा गया है, अनिष्ट माना तरह ध्यान और सम भाव एक दूसरे के पोषक है । ध्यान गया है। से प्रात्मा की शुद्धि भी होती है, जिससे कर्मों का क्षय जो ध्यान मनुष्य को ऊँचा उठाते हैं, साध्य तक पहहोता है और साधक "मैं" पन से ऊपर उठकर सबका चाते हैं. वे है धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान । हो जाता है।
धर्म ध्यान-जो ध्यान समता को बढ़ाने और उसे ध्यान का अर्थ है चित्त को किसी भी विषय पर दूर करने के लिए किया जाता है वह साधक की साध्य एकाग्र करना। यों चित्त खाली नही रहता, किसी न की प्राप्ति में सहायक होता है। इसलिए साधक.को राग