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________________ २३०, वर्ष २६, कि०६ अनेकान्त के प्रयत्न का भी साधना में महत्त्वपूर्ण स्थान है। शरीर से दोष हो ही जाते है। व्रत का भंग हो ही जाता है। की नियन्त्रण में रखने तथा इधर-उधर के प्रलोभनों या संकल्पों में ढिलाई आ जाती है। लेकिन साधक इससे प्रमाद में न डूबने देने के लिए काया को कष्ट में डालना घबराता नही और अनशन आदि करके दोष का निवारण उचित ही है। यह एक प्रकार का प्राध्यात्मिक व्यापार ही करता है। संकल्पों को ताजा करता है। प्रायश्चित्त से है। इसे काय योग भी कह सकते है। चित्त शुद्धि होती है और भूलों से बचाव होता है। प्राभ्यन्तर तप विनय-विनय को मोक्ष का मूल कहा गया है । पास विकास में प्राय- अपने से बड़े, ज्ञानी, श्रेष्ठ और तपस्वी के प्रति विनय श्चित्त का बहुत महत्त्व है। श्रमण परम्परा मे इस पर रखे बिना या उनके लिए समर्पित हुए बिना साधक का बहुत जोर दिया गया है। भगवान महावीर ने तो प्राय- विकास असम्भव है। गुरु के बिना ज्ञान अंधकार के श्चित का दैनिक कार्यों में जोड़कर एक प्रकार से उसे समान है। गुणियों के प्रति प्रादर रखना विनय है। जीवन का अंग ही बना दिया है। हम जो कुछ करते है। * महावीर ने साधना मार्ग में व्यक्ति की अपेक्षा गुण पर जोर वह सावधानी रखने के बाद भी एकदम शद्ध और निर्दोष दिया गया है । गुण ही पूज्य हैं, जाति, कुल आदि नहीं। नहीं होता, गलतियां हो ही जाती है । गलतियाँ अज्ञान से इसीलिए ज्ञान, दर्शन, चारित्र के विनय भी बताए गए भी होतो है, स्वभाव दोष से भी होती है और प्रमाद से है, सतत ज्ञान प्राप्ति, अभ्यास और स्मरण ज्ञान का सच्चा भी होती है। भविष्य में ऐसी गलतियों से बचने के लिए विनय है। दृढ़ता व श्रद्धा से ही जीवन में दृढ़ता और उनकी आलोचना करना, कारण को जानने और उससे शुद्धता आती है । शंकानों का निवारण ग्रन्थो या ज्ञानियों बचने का प्रयत्न करना उपयोगी है। से कर लेना चाहिए। इस तरह तत्त्व की निष्ठा को दृढ़ गलती हो जाने पर उसके बारे में अनुताप करके पुन । रखने का प्रयत्न दर्शन विनय है और तदनुकूल आचरण या प्रयत्न ही चारित्र विनय है। वैसी गलती न होने देने का सकल्प करना और सावधानी जो साधक नम्र होता है, उसको अपनी अपूर्णतामों रखना साधक को आगे बढ़ने में सहायक है। जो व्यक्ति का भान रहता है। जब साधक में यह अहंकार पैदा हो भूलों से सबक लेता है, उसका निश्चय से विकास होता जाता है कि वह सब कुछ जानता है, उसने सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है। तब उसकी प्रगति रुक जाती है। ___ जो व्यक्ति या साधक अपनी चर्या में नियमित रहता उसे कोई नहीं चाहता । इसलिए साधक को अहंकार छोड़ है, उससे गलतियां बहुत कम होती है। आहार-विहार कर ज्ञान प्राप्ति के लिए और चारित्र को शुद्ध, उन्नत और प्राचार-विचार का निश्चित और नियमित रहना बनाने के लिए विनय को बढ़ाना चाहिए। अपने से बड़ों अत्यन्त आवश्यक है। यह सब विवेक से ही सम्भव है। के प्रति आदर रखना उपचार-विनय है। भूल से बचने के लिए विवेक बहुत बड़ा सहारा है। बयावृत्य-सेवा वैयावृत्य । शरीर को सेवा या सहा। साधक साधना की दिशा में तब तक प्रगति नही कर यता की जरूरत रहती है। यह अभिमान मिथ्या है कि सकता, जब तक वह शरीर और शरीर सम्बन्धी व्यापारो किसी को सेवा और सहायता की जरूरत नहीं। साधक से आसक्ति नही हटा लेता । शरीर, मन पोर इन्द्रियो की अपनी आवश्यकताए कम से कम कर लेते है, फिर भी प्रवृत्तियों तो चालू ही रहती हैं, लेकिन इनसे प्रात्मा को कुछ न कुछ सेवा तो शरीर निर्वाह के लिए लेनी ही पड़ती हटा कर प्रात्म-चिन्तन का अभ्यास करना चाहिए। जब है। वास्तव में मानव शरीर ही सेवा से प्रोत-प्रोत है । भी कोई बुरे विकार या स्वप्न आदि आ जायें, तब उन जब तक शरीर है तब तक सेवा का लेन-देन चलता ही दोषों के निवारण के लिए ध्यान करना प्रायश्चित्त कह रहता है, जब कोई सेवा' में प्रमाद करता है वा अपनी लाता है। .. सुखासक्ति में फंस जाता है तब उसमें कर्कशता, कठोरता प्रयत्न करते रहने और अप्रमत्त रहने पर भी साधक आ जाती है और किसी न किसी पर उसका बोझ पड़ता
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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