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जैन मतानुसार तप की व्याख्या
रिषभदास राँका
साधना-मार्ग में तप का बहुत अधिक महत्त्व है। अवमौर्दय-जब साधक को लगे कि अनशन करने की क्योकि शरीर को कसकर उसे आत्म-विकास का साधन आवश्यकता नहीं है और ऊनोदरी से, कम भोजन से, एक बनाने में वह प्रमुख सहायक है। तप का अर्थ शरीर-कष्ट बार खाने से काम चल सकता है तो वह ऐसा करता है। नहीं है। वही तप-साधना में सहायक होता है, जिससे यह अवमौदर्य कहलाता है। शरीर और मन की प्रसन्नता बढ़े। इसलिए तप के भेदो वृत्ति-परिसंख्या--भोजन स्वादिष्ट हो, बढ़िया हो, को जानना जरूरी है। तप दो प्रकार का है-बाह्य और गरिष्ठ हो तो जीभ घर नियन्त्रण रखना कठिन हो जाता प्राभ्यन्तर। बाह्य तप के छह भेद है- अनशन, अव- है। लालसा बढ़ जाती है और तब भोजन में अनेक पदार्थ मौदर्य, बत्ति-परिसंख्या, रसपरित्याग, विविक्त शय्यासन शामिल ही जाते है। इस वृत्ति पर नियन्त्रण रखने के पौर कायक्लेशं । आभ्यान्तर तप के छह भेद है-प्राय लिए कहा गया है कि खाद्य पदार्थों की संख्या तथा परिश्चित्त, विनय, वैयावत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान। माण तय करना चाहिए। साधक कम से कम वस्तुओं को
ध्येय की प्राप्ति तथा वासनाओं को क्षीण करने के रखने प्रयत्न करता है, जरूरत से ज्यादह चीजो का लालच सभी प्रयत्नों को तप कहते है। ये प्रयत्न तन और मन छोडता है। दोनों से किये जाते हैं। यदि मन का साथ मिले बिना रस परित्याग-साधक की चर्या कम से कम आहार शरीर से किया जाने वाला तप देह-दण्ड या काय-क्लेश के और कम से कम पदार्थों से चलनी चाहिए। साधना मे स्वाद सिवा कुछ न होगा, इसलिए शारीरिक या बाह्य तपश्चर्या भी बहुत बाधा पहुंचाता है, इसलिए तपश्चर्या मे रस त्याग से मानसिक या पाभ्यन्तर तप का अधिक महत्त्व है। का महत्त्वपूर्ण स्थान है। जिससे विकार बढते हो, इंद्रियाँ लेकिन बाह्य तप भी आवश्यक होता है।
प्रबल होती हों, वैसा आहार न करना चाहिए। छह अनशन-बिना आहार के शरीर टिक नही सकता। प्रकार का तप है । इससे विषयों के सेवन का रस भी कम शरीर का सन्तुलन बिगड़ने न पाये और वह कर्म करने होता है। योग्य अप्रमादी बना रहे, इस दृष्टि से बीच-बीच मे शरीर विविक्त शय्यासन-तपस्या में स्थान भी वाधक को आहार न देना अथवा उपवास रखना आवश्यक है। होता है । यानी पास-पास का वातावरण और परिस्थिति उपवास का अर्थ है आत्मा के निकट वास करना। यानी महायक होनी चाहिए। साधक एकान्त मे रह सके तो इस नाशवान् शरीर से भिन्न सर्वशक्तिमान और अमर अच्छा। कोलाहल पूर्ण, अस्वस्थ स्थान तथा जहाँ तरहमात्मा का अनुभव करना। जब ऐसा लगे कि शरीर निरु- तरह की बाधाएँ बड़ी हों ऐसा स्थान तपम्वी के लिए पयोगी और भार रूप हो गया है तब उसके त्याग के लिए अनुकूल नहीं होता । एकान्त, पहाड, सुनसान, पेड़ के नीचे अनशन किया जाता है। इन सब बातों का एक ही उद्देश्य साधना तेजी से होती है। अधिक नींद भी साधना में है कि हम शरीर को नश्वरता और आत्मा मी अमरता बाधक है। को समझे और उसका विकास करें। अनशन या उपवास
काय क्लेश--ठण्ड में ठण्ड का, गर्मी में गर्मी का उपका अर्थ केवल भोजन का त्याग ही नहीं है। शरीर को द्रव न हो, इसलिए शरीर को विविध आसनों द्वारा सहनविश्राम देकर उसे अधिक सेवाक्षम बनाना भी आवश्यक शील बनाए बिना बेसे प्रसंग आ पड़ने पर साधक विचलित है। स्वास्थ्य ठीक रखना साधक का का कर्तव्य भी है। हो जाता है। अतः शरीर को कष्ट सहने के योग बनाने