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२२८, वर्ष २६, कि०६
भनेकान्त
पांच रूपों में अवतरित होता है । क्षमा, सहिष्णुता, नम्रता बादल अतीत की अपेक्षा आज अधिक घने और गहरे हैं । मादि गुण इसके परिवार हैं। धर्म व्यक्तिनिष्ठ है। धर्म इस दशा में यदि धार्मिकों ने धर्म की मौलिकता पर ध्यान का चरम लक्ष्य मोक्ष है। इसका अर्थ यह नहीं कि वर्त- न दिया तो उन्हें भयंकर विपत्तियाँ झेलनी पड़ेंगी । जनता मान जीवन में उसका कुछ फल ही सहीं होता। धर्मनिष्ठ में धर्म की प्रास्था है, धर्म बहुत प्रिय है पर रोटी का व्यक्ति अपना जीवनस्तर ऊंचा उठा सकता है। मैं उस प्रश्न मुलझाने की अोर में जो नास्तिकता का प्रचार किया जीवन स्तर को ऊँचा मानता हूँ, जो अधिक से अधिक जा रहा है, धर्म पर गूढ़ प्रहार किया जा रहा है। वह त्यागपूर्ण पीर सन्तोषमय हो। जिनकी जीवन आवश्यक- उपेक्षा की वस्तु नही है। ताएं बढ़ी नहीं है, जिन्हें योग साधन अधिक उपलब्ध हैं, मैं उह राजनीतिज्ञों को भी एक चेतावनी देता हू मैं उनका जीवन स्तर ऊँचा नहीं मानता क्योंकि वस्तुतः कि वे हिसक क्रान्ति ही सब समस्याग्रो का समुचित वे सुखी नहीं है। अधिक आवश्यकताओ में सुख कम होता माधन है. इस म्रान्ति को निकाल फेंकें। अन्यथा उन्हे
ख का मात्रा बढ़ता है। स्वयं कट परिणाम भोगना होगा। स्थायी शान्ति के अधिक आवश्यकता वाला व्यक्ति राष्ट्र या समाज के शोषक शान्ति के साधन अहिसा. क्षमता और हृदय परिवर्तन है। हुए बिना नहीं रह सकते।
हिसक क्रान्तियों से उच्छ खलता का प्रसार होता है। धर्म के विषय में मनुष्य जितना भ्रान्त है। उतना
आज के हिंसक से कल का हिंसक अधिक क्रूर होगा, सम्भवतः अन्य विषयों में नहीं है। इसलिए धर्म के कुछ
अधिक सुख लोलुप होगा। फिर कैसे शान्ति रह सकेगी अंगों का सूत्र रूप में संकलन करना उचित होगा। जो आत्मशुद्धि का साधन है, वह धर्म है। धर्मस्वरूप है
-- यह कम समझने की बात नहीं है। स्थिति चक्र परित्याग और तपस्या । धर्म व्यक्ति से पृथक् नही है। धर्म
वर्तनशील है। अहिमा हीन कोई भी बाद सुखद नही हो का आश्रय वह व्यक्ति है, जी अहिसक और सन्तुष्ट है।
सकता यह निश्चित है। वर्ग संघर्ष जैसी विकट समस्या धर्म से प्राचरण पवित्र होते है। धर्म प्रेम या स्नेह से
अहिसा और सन्तोष का समन्वय किए बिना स्थायी रूप ऊपर की वस्तु है। वह समता से प्रोत-प्रोत है। धर्म का
से सुलझ नहीं सकती। यह भी निश्चित है। हिसावादी
हिंसा छोड़ें और परिग्रहवादी अर्थ-लोभ छोडें, तभी स्थिति लक्ष्य भौतिक सुख प्राप्ति नहीं, आत्म विकास है। धर्म
साधारण ही सकती है। प्राणी मात्र को अब अहिसा प्रत्येक भौतिक कर्तव्य को सीमित करता है। धर्म परलोक
और अपरिग्रह की मर्यादा समझनी है। हिसा और परिके लिए नही जीवन के प्रत्येक क्षण को सुधारने के लिए
ग्रह का अभियान करते-करते आज का मानव थक चुका धर्म धनिक एवं उच्च वर्ग वालो के लिए ही नही अपितु
है। अब उसे विश्रान्ति की आवश्यकता है। शान्ति की सबके लिए है। धर्म सबके लिए एक है। उसमे तन-मन
इच्छा है। का भेद नही है। धर्म साधना के लिए धन की आवश्यक नहीं। शुद्ध भावन। एवं सरलता आवश्यक है। ऊपर भी
___मानव सुख का प्रार्थी है । तो आत्मा को पहिचाने ।
अशान्ति को हेतुभूत भौतिक लालसानों को त्यागे, धर्म पंक्तियों में मैंने जिस धर्म का उल्लेख किया है, वह स्थायी
का अन्वेषण करे । क्षणिक सुख-सुविधाओं के लिए शाश्वत है, उपकारी है, दीन-हीन के लिए आदरणीय है।
तत्त्व को भुला देना बुद्धिमानी नहीं है। धर्म धनी और वर्तमान का राजनीतिक जीवन अति विषाक्त है।
गरीब, मालिक और मजदूर, साम्राज्यवादी मोर साम्यउसका विष ला धर्म सब क्षेत्रो की छू रहा है। धर्म भी
वादी इन सबके लिए कल्याण का प्रशस्त पथ है, सब उससे वंचित नही है। स्वार्थ की भूमिकामों में पले जिसे
धार्मिक बनें। पौद्गलिक सुखों में प्रति आसक्त न बनें । राजनीतिकवाद धर्म का नाश करने पर तुले हुए हैं।
वह जीवन क सबसे बड़ा गूढ़ रहस्य है । भौतिक सुख समृद्धि के लिए प्रात्मा का अस्तित्व यही सत्य और सनातन तत्व है। मिटाने का दृढ़ संकल्प किए हुए है, वास्तिकता के काले