SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 262
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुण्यतीर्थ पपौरा (धारावाहिक) -सुषेश होगा? पाता कवि सोच नहीं ॥८॥ उत्तर में हिम गिरि श्रेणी तो, मध्य भाग में विन्ध्य शिखर । हैं हिम के होरक हार उधर, तो उज्ज्वल निर्भर धार इधर ॥॥ -:प्रथम सर्ग:भारत तो पावन है ही पर, पावन इस का हर कण-कण है। इस में सुर तक को आकर्षित, करने वाला आकर्षण है।। १ ।।. लगता त्रिभुवन की श्री ही, स्वयमेव हुई एकत्र यहाँ । तब ही तो अनुपम सुषमा के, दर्शन होते तो सर्वत्र यहाँ ॥२॥. लगते प्रसून तो सुन्दर ही, पर सुन्दर लगते कण्टक भी। निर्भर तो रसमय हैं ही पर, रसमय इस के प्रस्तर तक भी ।। ३ ।। वधुएं तो मुस्काती ही पर, हर शिला यहाँ मुस्काती है। चिड़ियां तो गाती ही हैं पर, हर मारुत लहरी गाती है ।। ४ ।। स्वर्गीय छटा दर्शाते हैं, नित सध्या और प्रातःकाल यहाँ । निज निधि विखेरते शरद शिशिर, प्रातप और वर्षा काल यहाँ ।। ५ ।। प्राकृतिक दृश्य हैं दर्शनीय, गिरि शिखरों के नद कुलों के। है कहीं लताओं के मण्डप, उद्यान कहीं तो फूलों के ॥ ६ ॥ यों इस भारत की वसुधा यह, सुषमा का शान्ति निकेतन है। जो हमको देख न मोहित हो, ऐसा भी कौन सचेतन है ।। ७ ।। भूतल का स्वर्ग इसे कहने, में कवि को कुछ संकोच नहीं। इस से सुन्दर क्या स्वर्गों में, यह विध्याचल ही दूर-दूर, तक फैला हुआ दिखाता है। इस के ही कारण यह प्रदेश, बन्देल खण्ड कहलाता है ।। १०॥ यह वीर भूमि है वीरों ने, निज विक्रम यही दिखाया था। पाल्हा ऊदल ने परि दल की, सेना को यहीं छकाया था ।। ११ ।। जन्मे थे मधुकर शाह यहीं, जिन ने निज पान दिखायी थी। 'अकबर' का आदेश भंग, कर अपनी टेक निभायी थी॥ १२ ॥ हरदौल यही पर हुए जिन्होंने, पिया विहँसते हुए गरल । अति कठिन मृत्यु प्रालिगन भी, माना था जिस ने कार्य सरल ॥ १३ ।। ये छत्रसाल भी यहीं हुए, गौरवमय जिन की गाथा है। प्रत्येक वीरता का प्रेमी, जिन को नत करता माथा है ।। १४ ।। लक्ष्मी बाई भी यहीं हुई, भाये जिसको शृंगार नहीं। जिसने निज रिपु षों के आगे, की कभी हार स्वीकार नहीं ।। १५ ।। यों जाने कितने वीर हुए, जो चले सदा अंगारों पर।
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy