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२३४, वर्ष २६, कि०६
अनेकान्त
जो हो समत्त सदा झूमे, तलवारों की झंकारों पर ।। १६ ॥ बुन्देल खण्ड उन वीरों से, है रहा कभी कंगाल नहीं। जिन ने निज अन्तिम श्वासों तक, गलने दो रिपु की दाल नहीं ॥ १७ ।। जिन को वीरत्व कथाएं हैं, प्रचलित नगरों में गाँवों में । भर देता जिसका नाम मात्र, वीरत्व हृदय के भावों में ॥ १८॥ अब तब भी गाते जाते हैं, गायक जिन के यश गीत नये । कवि जिन को केन्द्र बना रचते, जाते हैं काव्य पुनीत नये ।। १६ ।। यों यह क्रीड़ा स्थल दीर्घ काल, से रहा मनस्वी गुणियों का। पर साथ-साथ ही तपो भूमि, भी रहा तपस्वी मुनियों का ।। २० ॥ इसने ऋषियों को तप करते, देखा है सदा दिगन्तों ने। इसके कितने ही तपोवनों, में ध्यान लगाया सन्तों ने ।। २१॥ साक्षी हैं इसके विंध्याचल, के जाने कितने विपिन सघन । जिन की एकान्त गुफाओं में, है किया उन्होंने प्रात्म मनन ।। २२ ॥ इसके कण-कण भी किए गए, हैं पावन उनके चरणों से। जो थे छुटकारा चाह रहे, वसु कर्मों के प्रावरणों से ।। २३ ॥ जो कर्म निर्जरा करने को, निर्जन में यहाँ विचरते थे। निर्मित कर तप का हवन कुण्ड, कर्मों का स्वाहा करते थे ॥ २४ ॥ जिन ने निखारा था अपना, श्रद्धान, ज्ञान, आचार स्वयम् ।
जिन में विकास पा हुए सभी, ये तीनों एकाकार स्वयम् ॥ २५॥ जिन ने इस भौतिकवादी युग, में था अध्यात्म प्रचार किया। देकर उपदेश अहिंसा का, सब में करुणा संचार किया ।। २६ ।। जिन ने निज चिंतन से सारे, जग का कल्याण विचारा था । तुम जियो सभी को जीने दो, जिन का यह पावन नारा था ॥ २७ ॥ संसार हुआ लाभान्वित था, जिन के आदर्श विचारों से । था पारस्परिक विरोध मिटे, जिन के पावन उद्गारों से ।। २८ ।। जिन के समीप आ गाय सदृश, भोले बन जाते चीते थे। जिन के प्रभाव से सिंह धेनु, जल एक घाट में पीते थे। अतएव यहाँ बहुतायत से, पुण्य स्थल हैं प्राचीन अभी। जो दीर्घ काल से खड़े हुए, हो निज महिमा में लीन अभी ।। जिन की कि वंदना करने से, भक्तों को मिलता चैन सदा । जिन को निहार कर ही सार्थक, समझा करते वे बैन सदा ।। मन-मोहित करने का इतना, बल रखती जिन की सौम्य छटा। लगता है वहाँ पहुँचने पर, जाये न वहाँ से शीघ्र हटा॥ यद्यपि जिन के परिपूर्ण कथन, में अक्षम है ये छन्द सभी। पर कवि न निराशा से करता, निज लौह लेखनी बन्द अभी ।। जितना उससे बन सकता है, वह उतना मात्र जताता है।