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अंजना
पछताती पछताती दुखिया,
तज देती थी जीवन-आश ॥
(५८) बरसों बीत गये दुखिया को,
पाये नहि पीके दर्शन। छलिया कपटिन पगली कहते,
झुका पवनजय का नहि मन ॥
(६५) ऐसे विनती कर प्राज्ञा ले,
सजा सैन्य चढ़ चला कुमार। मूर्तिमान जा रहा वीररस,
मानों लिए ढाल तलवार ।
लाख लाख तकलीफ उठाती,
तरुणी हा हा खाती थी। नही पवनंजय के मन को वह,
तो भी पिघला पाती थी।
लेकर मंगल द्रव्य मनोरम
पतिव्रता सन्मुख पाई। सती अजना, पर वह पति से,
तिरस्कार भारी पाई ॥
मन था या अनघड पत्थर था,
लोहा था या वज्जर था। प्रेम भिखाग्नि परम सन्दरी,
नारी को न जहां स्थल था ।
चली गई दुखिया महलों में,
व्याकुल करने लगी विचार । देखे जय पाकर पाते हैं,
कब तक मेरे प्राणाधार ।।
(६८) दिन भर चल सेना जा ठहरी,
मानसरोवर के शुचि तीर । लगे टहलने ले प्रहस्त को,
तीरों तीर पवनजय वीर ।।
बरसों बीत गये ऐसे ही,
स्त्री को दुख पाते पाते । तो भी रुके न पति के जी में,
दुष्ट भाव आते आते ॥
(६२) इतने में प्रह्लाद भूप पर,
पत्र लकपति का प्राया। सैन्यसहित सज रण में शामिल,
होने को था बुलवाया।
वहाँ नजर आया चकवे को,
झपट ले गया पक्षी बाज । चकवी तड़प तड़प जी देती,
करती हुई आर्त आवाज ।।
कहा पवनजय ने पढ उसको,
पूज्य पिता मै जाऊँगा। क्षत्रियसुत कैसे होते हैं,
रण में यह दिखलाऊँगा।
(६४) नृप रावण के सब रिपुत्रों को,
दल दल मार भगाऊँगा। अपना अपने कुल का गौरव ।
जग में पूर्ण जगाऊँगा।
उड़ती कभी कभी भूतल पर,
गिरती पड़ती चलती थी। अपनी छाया को जल में लख,
चकवा जान लपकती थी।
(७१) चकवा कहाँ कहाँ चकवी थी,
चकवा तो तज गया जहान । चकवी का दुख लखा न जावे,
थी संकट में उसकी जान ।