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१५०, वर्ष २६, कि० ४-५
अनेकान्त
वेष्टित है।
ऐरावत हाथी सौम्यता व अतुल बल का प्रतीक है। इस कात्तिक महोत्सव की शोभायात्रा में सम्मिलित रजतमय नौबतखाना और उसके ऊपर घूमने वाली पुत्तहोने वाले सभी महानुभावों के मुखमण्डल आनन्दोल्लास- लिकाएँ नत्य नाटकादि का आभास कराती है। मवारी मे पूर्ण एवं हृदय भक्तिमिक्त मालूम देते है। इन सब मे नाना प्रकार के वादित्रो का प्रायोजन रहता है जिनम अधिक मोटे ताजे पाडे बालम्कन है जिनके दूसरे नंबर मे कच्छी जैन युवको तथा वङ्गीय सभ्रान्त युवको की कनिसेठ श्री कल्लमल जी ही कहे जा सकते है। "चित्र मे पय वाद्य मण्डलियां अपन विविध वादित्रो सहित केवल "इन्द्रध्वज" तथा श्रावकगण व प्राचार्य श्री के चित्र पर भक्तिभाव व्यक्तीकरणार्थ उपस्थित होकर वादित्र ध्वनि नाम लिखा हया है। चित्र के उपग्भिाग में निम्नलिखित प्रसारित कर व्योम मण्डल को गुञ्जायमान कर देती है। , शीर्षक है :---
ढक्काओं का निनाद निकटस्थ व्यक्ति की वाणी को भी "श्रीघमनाथ स्वामी का असवारी काता महाच्छव का सुनने मे बाधा देता हया सूदुर गगन मण्डल में परिव्याप्त
इस चित्र मे श्री बद्रीदास जी, कल्लूमल जी, बलदेव- हो जाता है। जैन श्वेताम्बर मित्र मण्डल, जैन सभा, दास जी, शिखरचंद जी, भैरू दास जी व महताबचद जी जैन क्लब, प्रादीश्वर मण्डल, वीरमण्डल, कोचर मण्डली के नाम आये है। बद्रीदाम जी (जन्म मवत् १८८६
दिाम जी (जन्म मवन् १८८६ आदि सगीत टोलियाँ अपने मुमधुर कण्ठध्वनि से भक्ति मौनकादशी, स्वर्गवास स० १६७४) का चित्र तरूणावस्था
और उल्लासपूर्वक भजन गाती हुई दर्शको का ध्यान का है। कल्लमल जी माहब श्री लाभचद जी सेठ के
आकृष्ट करती हुई कर्णमधुरताभिभूत व्यक्तियो द्वारा पितामह थे। भैग्वदास जी जौहरी श्री महाराज बहाहर
अधिक ठहरने का आग्रह कराती है। सवारी में मजावट सिंह टॉक के पूर्वज थे जिनका स० १६३५ मे म्वग्रंवाम
की सामग्री भी बोधदायक एवं भावपूर्ण है। रजतमय हो चुका था। बद्रीदास जी, कल्लमल जी, भग्वदाम जी,
षड्लेश्यावृक्ष, शिविका, मिहासन, फूल घरा, दीपमन्दिर, मुन्नालाल जी और वल्लभदास जी जौहरी म० १६१५
कल्पवृक्ष, चतुर्दश महाम्वन, मुमगिरि, लघु समवशरण मे श्री बड़े मन्दिर जी के ट्रस्टी नियुक्त हो चुके थे ग्रन
नगद नाना अलकरणों में भगवान महावीर के चण्डकौशिक इस चित्र का निर्माण काल (मवत् १९१७-१९६५
माश एवं कानों में कोन ठोकने के उपमग के भाव बीच) संवत् १९२५ के लगभग अनुमानित है। क्योंकि
बगीय मूर्तिकला के मन्दर उदाहरण है। विविध भक्तिश्री शीतलनाथ जिनालय की प्रतिष्ठा वि० स० १६०३
भाव युक्त अलकरणो के पश्चात् अन्त में धर्मनाथ स्वामी मिती फाल्गुन शुक्ला २ के दिन श्री जिनकल्याणमूरि जी
के ममवशरण का दर्शन होता है। इस स्वर्ण रजतमय के करकमलो से सम्पन्न हुई थी, जो इस चित्र में विद्यमान
गुरुतर समवशरण को पाठ भाग्यशाली भक्त अपने कन्धो है। पाडे वालमुकन, पाडे बद्रीनारायण जो वर्तमान
पर वहन करते है । जिस प्रकार प्रान म्मरणीय पूज्यपाद पुजारी है - के फूफा थे ।
श्री भगवंत अष्टकमलो पर पैर रहते हए विचरते थे । कात्तिक महोत्सव जी की सवारी का इतिहास और उसी प्रकार पाठ भव्यात्माग्री के बहन करने का भाव प्राचीन रूप का सक्षिप्त दिग्दर्शन कराने के पश्चान् ठीक भगवान् की विद्यमानता की झाकी भक्तहृदय में पाठको को वर्तमान का परिचय देना भी आवश्यक है। उत्पन्न कर देती है। समवशरण के उभयपक्ष से चामरयह शोभायात्रा भगवान् के विहार का प्रतीक है। जिस युगल, छत्र, किरणियादि वहन किये जाते है। इतने लम्बे प्रकार भगवान् के आगे गगनचुम्बी इन्द्रध्वज चलता हुआ जुलूस की सुव्यवस्था के हेतु लाल व हरे झण्डो का प्रयोग शोभायमान होता था, उसी प्रकार सबसे आगे पचवर्णी सावधानता पूर्वक किया जाता है ताकि मार्ग में सूनापन पताकाओं वाला इन्द्रध्वज सर्वधर्म समन्वय एवं अनेकान्त दृग्गोचर न हो। जुलूस में सम्मिलित होने वाले महानुवाद का अमरपाठ पढाता है। नाना प्रकार के वाद्ययन्त्र भाव प्रभु के प्रति बहुमानार्थ नङ्ग पाव चलते है। बाहरी देवदुन्दुभ्यादि प्रतिहायों के एव विशालकाय इन्द्र का श्वेत भीड़ को भीतर आने से रोकने के लिए डोरी के द्वारा