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________________ कलकत्ते का कार्तिक महोत्सव जिनालय विद्यमान था ही । ग्रत इन्हीं संवतों में और स० [१८६३ से पूर्व से महोत्सव की सवारी चालू है। समवशरण कार्मिक महोत्सव की सवारी में जो धर्मनाथ स्वामी का भव्य दर्शनीय समवशरण निकलता है, वह सवत् १८९३ मे फनी को बनाने के लिए दिया गया १ था। स० १५६४ मे वह बनकर आया और कुल २२६२ ।। ) । व्यय हुआ। इसमे ३५.३९ ।। ) की चांदी, १३२७) महूरी ५४०) सोना मुजमा, १०० ) काष्ट लोहा, १०६ = ) । छोजन, कुल मिला कर ५६१३ | = ) हुआ। जिसमे चाँदी का बट्टा = ) प्रतिशत से ३३२।।।) बाद जाकर उपर्युक्त १२० १।। ) । रहा, जो मन्दिर जी में स्थित पुराने खाता बहियों मे प्रमाणित है। यह समवशरण १२७ वर्ष पूर्व का बना हुआ होने पर भी इतना भव्य, मनोहर और कलापूर्ण है कि मानो आज ही बनकर तय्यार हुआ हो ! कार्तिक महोत्सव का प्राचीन चित्र | -IT जैन समाज के अग्रगण्य सुप्रसिद्ध जौहरी स्वर्गीय राय बद्रीदास बहादुर द्वारा निर्वाचित श्री शीतलनाथ जिनालय - जिसका म० १९२३ मे निर्माण हुआ थाके मण्डपो पर कई जैन तीर्थ, जिनकल्याणक, ऐतिहासिक कथा तथा साहित्यादि के सुन्दर और विशाल चित्र लगे हुए है जिनकी संख्या ४० से न्यून नहीं है । इनका निर्माण सं० १९२५ के आसपास होना सम्भावित है क्योकि इसी वर्ष मे जयपुर के गणेश मुसब्बर ने बड़े मन्दिर जी के सभामण्डप मे लगे विशाल चित्रों को बनाया था, तभी राय साहब ने अपने जिनालय के लिए सुन्द चित्र समृद्धि तय्यार कराई होगी। इन चित्रो मे एक चित्र श्री कार्तिक महोत्सव जी की रथयात्रा का है जो '६२ इंच' लबा और १७ इच चौड़ा है। सौ वर्ष पूर्व यह जुलूम किस प्रकार निकलता था उसका इस चित्र में अच्छा ऐतिहासिक निदर्शन है। पाठकों के परिचयार्थ यहाँ इस चित्र का संक्षिप्त परिचय कराया जाता है। इस लम्बे चित्र मे सबसे आगे लाल रंग की पोशाक व श्वेत टोपधारी दो व्यक्ति झण्डा लिए चल रहे है । इनके पीछे कई मनुष्यों द्वारा लीचा जाने वाला नौबत १४६ खाना है, जिसमें बैठे हुए चार व्यक्ति वादित्र बजा रहे है। इसके उभयपक्ष मे श्वेत टोपधारी अश्वारोही चल रहे है । नत्पश्चात् लाल शेरवानी तथा बटदार पगडी वाले चपरासी पताका धारण किये हुए मार्ग के उभयपक्ष मे चल रहे हैं। फिर छडीदारो की पक्ति व तदनुगामी मार्गाविरोधक यष्टिकावाही पछि चित्र के शेष तक चली गई है । रास्ते के मध्य में नौबतखाने के पश्चात् गगनस्वर्थी इन्द्रध्वज (महेन्द्रस्य चलता हुआ "जैन जपति शासनम् " की दिव्य पताकायें फहरा रहा है, फिर इसी का अनुगामी लघु इन्द्रध्वज चल रहा है। पालकी, थाना, सुखासन, कल्पवृक्ष, तीन छत्र घण्टियो वाली शिविका के पास श्री महताबचंद जी व बलदेवदास जी खड़े है । तत्पश्चात वाजे वाले अपने वाद्य यंत्रो को बजाते हुए चल रहे है। इनके उभयपक्ष मे दो अश्वारोही कुमार व दो कुमार वाली बच्चा गाडी मे बैठे हुए है । बाजे के पश्चात् जोहरी साथ, शहरपानी, मारवाडी तथा कच्छी पगड़ी धारण किये हुए श्रावक - समुदाय चल रहा है। सबसे अग्रगामी श्री मन्दिर जी के दृष्टीगण है, जिनके हाथो ने स्वर्णमय छडी सुशोभित है। इनमे से एक महाशय का नाम श्री भैरूदास जी व दूसरे सज्जन भगवानदास जी है। श्री मुरार जो तथा पाण्डे बालमुक्त प्रभु के सम्मुख करबद्ध खड़े है। भगवान के समवशरण जी को उठाने वाले भाग्यशाली धावको में सर्वप्रथम बद्रीदाम जी, कल्लूमल जी तथा शिखरचद जी है, दूसरे भाइयों का नाम नही लिखे गये है । भगवत के समवशरण के पांच शिखर व कई स्तम्भ सुशोभित है। इस स्वर्णमय समवशरण के उपरि भाग में फहराने वाली ध्वजायें भी स्वर्णाभ है। समस्त दर्शको के आशाकेन्द्र श्री धर्मनाथ स्वामी समरगरण में विराजमान है, जिनके मुकुट, कुण्डल, हार, बाजूबंद, श्रीफलादि धनकार सुशोभित है ममवारण के पृष्ठभाग मे पंखा किरणिया व छत्रवाहक लोग चल रहे है । तदुपरान्त लखनऊ गद्दी वाले त्यागमूर्ति खरतरगच्छाचार्य श्री जी थी जिनकल्याण सूरिजी महाराज की दुर्बल किन्तु तेजस्वी देह के दर्शन होते है। सूरि जी के पीछे दो चामरधारी तथा आठ यतियों का समुदाय चल रहा है, दाहिनी ओर पीछे तक धावक समुदाय परि
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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