________________
भविष्यानुरूपा के चार पुत्र उत्पन्न होते हैं-सुप्रभ, कनक नभ सूर्यप्रभ और सोमप्रम तथा तारा, सुतारा नाम की दो पुत्रियाँ उत्पन्न होती है । सुमित्रा से घरगेन्द्र नाम का पुत्र तथा तारा नाम की पुत्री उत्पन्न होती है।
• अनेकान्त **
कुछ समय बाद विमलबुद्धि मुनिराज गजपुर प्राते हैं। भविष्यदत्त सपरिवार उनकी वन्दना करने के लिये जाता है धौर उनसे अपने पूर्वभव जसकर देह भोगो से विरक्त हो, सुप्रभ को राज्य देकर दीक्षा ले लेता है और तपश्चरण द्वारा वैमानिक देव होता है और अन्त में मुक्ति
का पात्र बनता है ।
रचना काल. -
-
कवि धनवाल ने भविष्यदत्त कथा मे रचना काल नही दिया और न अपनी गुरु परम्परा हो दी। इससे रचना काल के निर्णय मे बड़ी कठिनाई हो रहा है । ग्रन्थ की सबसे प्राचीन प्रतिलिपि स० १३६३ की उपलब्ध है, जैसा कि लिपि प्रशस्ति के निम्न पद प्रकट है:
"संवच्छ रे किरा विकणं, ग्रहो एहितेण वदि तेरह सरणम् । वरिस्सिय प्रवेग सेयम्मि पक्खे, तिहि वारसी सोमि रोहिणी विखे ॥ सुहज्जोइमय रगमो बुद्धपत्तो इमो सुन्दरो सत्यु सुहदिणि समतो ॥'
यह शस्त्रसंवरसर विक्रम तेरह सौ निरानवे मे पोस मास शुद्वादशी सोमवार के दिन रोहिणी नक्षत्र मे शुभ घडी शुभ दिन में लिखकर समाप्त हुप्रा । उस समय दिल्ली में मुहम्मद शाह बिन तुगलक का राज्य था । इस ग्रन्ग की प्रति को लिखकर देने दिल्ली निवासी हिमपाल के पुत्र बाधू साहू थे। जिन्होंने अपनी कीर्ति के लिये प्रन्य अनेक शास्त्र, उपशास्त्र लिखवाये थे। यह भविष्यदत्त कथा उन्होने अपने लिये लिखवाई। इससे यह ग्रन्थ स० १३६३ (सन १३३६६०) से बाद का नहीं हो सकता, किन्तु उससे पूर्व रचा गया है।
डाक्टर देवेन्द्रकुमार ने मूल से इस लिपि प्रशस्ति को श्री बलाल और गुणे द्वारा सम्यादित गायकवाड़ पोरिन्टियल सीरीज प्रत्याङ्क नं० २०, १६५२ ई० में प्रकाशित१- इहते परत सुहायार हेउ, तिरो लिहिम सुत पंचमी हि हेव (अनेकान्त वर्ष २१ रिस)
[ ४३
जो अग्रवाल वंशी साहु वाधू ने लिखवाई थी मूल ग्रन्थकर्ता धनपाल की प्रशरित समझ कर उसका रचना काल सवत् १३६३ (सन् १३३६) निश्चित कर दिया है। यह एक महान भूल है, जिसे उन्होंने सुधारने का प्रयत्न नहीं किया।
जबts डॉ० हर्मन जंकोवी ने इस ग्रन्थ का रचना काल दशवी शताब्दी से पूर्व माना जा सकता है, ऐसा लिखा है। श्री दलाल और गुणे ने भविसयत्त कहा की भूमिका में बतलाया है कि धनपाल की भविसयत्त कहा की भाषा हेमचन्द्र से अधिक प्राचीन है। इससे स्पष्ट है कि यह ग्रन्थ वि० स० १२ वी शताब्दी से पूर्व की रचना है । फिर भी डाक्टर देवेन्द्रकुमार ने वि० सं० १२२० मे रवी जाने वाली faबुध श्रीधर को भविसयत्त कहा से तुलना कर धनपाल की कथा को अर्वाचीन बतलाने का दुस्साहस किया है। जबकि स्वयं उसके भाषा साहित्य को शिथिल (घटिया दर्जे का) माना है और लिखा है कि इन वनो को देखने पर स्पष्ट हो जाता है कि काव्य, कवित्व शक्ति से भरपूर है। पर कल्पनात्मक बिम्बार्थ योजना और प्रलङ्करणता तथा सौन्दय नुभूति की जो झलक हमें धनपाल की भविष्यदत्त कथा मे लक्षित होती है, वह इस काव्य (विबुध श्रीधर की कथा ) मे नही है- "विबुध श्रीधर के भविष्य दत्त कथा की भाषा चलती हुई प्रसाद गुण युक्त है।" (देखो भविष्यत्त कथा तथा अपभ्रंश कथा काव्य पृष्ठ १५२ ) जबकि धनपाल की भविष्यत्त कहा की भाषा प्रोढ, प्रल करण और बिम्बार्थ योजना आदि को लिये हुए है । भाषा प्रांजल और प्रसाद गुण से युक्त है ।
कवि धनपाल ने ग्रन्थ मे भ्रष्ट मूल गुणों को बतलाते हुए मद्य, मांस और मधु के साथ पच उदम्बर फलों के त्याग को अमूल गुण बतलाया है ।
यथा-ममं पंच बराई खज्जति सामंतर (भविसयत कहा १६८ )
सयाई ।
दावी शताब्दी से पूर्व मूल गुणों में पच उदम्बर फलो का त्याग शामिल नही था, जैसा कि प्राचार्य समन्त भद्र के निम्न पद्य से प्रकट: