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भगवान महावीर का समाज-दर्शन
भगवान् महावीर ने सत्य को अन्तर्गत कहा है। आचार, विचार और उच्चारण में सत्य हो । जो सत्य बोले उसके द्माचरण में भी सत्य चाहिए। उसके विचार में भी सत्य का होना आवश्यक है। सत्य में सरलता दिखायी देती है, बता नहीं जहाँ मायाचारी हो, वहाँ सत्य नही हो सकता। जिसका वचन एक हो, कृति अलग हो वह मनुष्य, जीवन में सफल नही हो सकता । संसार
में 'वचन' की बड़ी कीमत है । राष्ट्र भी बचन के सामने झुकते है, तो मनुष्य की क्या कथा ? भगवान् महावीर ने सत्य को ऐसा शस्त्र बताया है जिससे कितना भी विरोधी व्यक्ति क्यो न हो, महिसक पद्धति से उसका मुकाबला सभव होता है।
श्रचीर्य
भगवान् महावीर ने चोरी का त्याग बताया है । चोरी एक सामाजिक अपराध है । जहाँ मूलभूत आवश्य ताओं की पूर्ति नहीं है, यहाँ ईमानदारी नहीं रहती। नैतिकता का वह कलंक है। वस्तुतः चोरी समाज की व्यवस्था का प्रतीक है। जहाँ भौतिक साधनो की कमी नहीं वहाँ चोरी की कोई प्राशका नहीं। भाजकल समाज मे जितना भ्रष्टाचार दिखायी दे रहा है, जितना शोषण दिलायी दे रहा है, वह सब चौर्यकर्म है। पोरी मोह की परिणति से होती है। केवल पन की चोरी ही चो नहीं चौर्य है अपितु अपने कर्तव्य मे मालस्य भी चोरी है। चोरी में भय होता है, और भय में मृत्यु छुपी हुई है । निर्भयता जीवन है इसलिए सामाजिक विषमताएं है यहाँ निरन्तर चोरी का भय बना रहता है। इसलिए एक स्वस्थ समाज की रचना के लिए प्रत्येक व्यक्ति को तस्करता, यानी बेईमानी से डरना चाहिए। किसी वस्तु में प्रासक्ति चौर्यकर्म की जननी है । जहाँ सुन्दर वस्तु दिखी कि मन का संयम ढिलमिल हुआ और मन पर पोरी का भूत सवार होता है इसलिए जहाँ मन की । शुचिता है, वहाँ वस्तु का मोह नहीं है अतः मन का संशोधन श्रावश्यक बताया गया है। जो मनुष्य निश्चयी है यह कितने भी सकट पाये, न्याय मार्ग से विचलित नहीं होता । न्याय मार्ग, यानी सदाचार का मार्ग। वहीं मनुष्य
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अपनी कमजोरियो से ऊपर उठता है, प्रचर्य व्रत का पालन करता है ।
ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह
ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह मे भी भगवान् महावीर ने इन्द्रिय दमन, सयम और त्याग की भावना का महत्व बताया है । भगवान् स्वयं बाल ब्रह्मचारी थे । उन्होंने काम शत्रु को जीता था। वे संसार के समक्ष एक प्रादर्श | ब्रह्मचर्य का अर्थ है, आत्मा मे सुस्थिरता । गृहस्थ और मुनि भी ब्रह्मचारी हैं, बशर्ते उनकी श्रात्मा स्वयं में ओन रहे विवाह बाधा नहीं है। इन्द्रियाधीन न होना ब्रह्मचर्य है, समाज में परस्पर भाई चारा, माता और पिता के समय बहन-भाई के संबंध स्थिर रहें और समाज का नैतिक मूनन हो, इसलिए भगवान् महावीर ने ब्रह्मचर्य का सिद्धान्त प्रतिपादित किया है । प्रात्मकल्याण की योजना उसमें सन्निहित है। नदी का जल स्वच्छ होता है, किन्तु यदि उसके किनारे पक्के नही है तो तट की मिट्टी नदी की घार में मिल जावेगी। इसी प्रकार संयम श्रौर निग्रह ये दोनो मनुष्य जीवन रूपी नदी के किनारे है। इनसे मनुष्य की, और समाज की आत्माएँ स्वच्छ रहती हैं। सयत जीवन मे झूठमूठ को स्थान नहीं, भौर श्रसंयत जीवन मे सत्य को स्थान नहीं । समाज का मुख स्वच्छ रखना हो तो उसे श्रब्रह्म से बचाना चाहिए, ताकि सही-सालिक प्रतिविम्ब दिखायी दे सके। पश्चिम मे भौतिकता की जो होड चल रही है परन की जो नदी बढ़ रही है. वहाँ भगवान महावीर के सिद्धा न्त भाज भी बड़े उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं । अपरिग्रह का यह अर्थ नहीं कि कोई दिगम्बर हो, या घर द्वार छोड़ दे; परिग्रह से जीवन चलता है, अपरिग्रह से नहीं, फिर भगवान् ने अपरिग्रह की कल्पना क्यों की ? 'अ' का अर्थ 'किचित्' ऐसा होता है, वह निषेधार्थक नहीं है । जहाँ सीमित साधनों से काम चल जाता है, यहा मर्यादा साधनों को जुटाना मूर्खता है। मात्र का युग संग्रहवादी बन गया है, वह शोषणवादी बन गया है । जहाँ संग्रह है, वहाँ शोषण होगा ही, वहीं विषमता होगी ही एक अपरिग्रही है और एक महापरिग्रह है। दोनों ही त्याज्य है। अपरिग्रह से काम नही चलता, पौर