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२६, कि.१
अनेकान्त
जीवन । हिंसाचार मृत्यु का कारण है, अहिंसाचार जीवन
सत्य का। मानव-समाज प्राज युद्धोन्मुख है। यह प्रात्म-प्रवंचना
सत्य जीवन का मूलभूत तत्त्व है। भगवान् महावीर की स्थिति है। प्रात्मा की अटूट शक्ति समत्व है, मोर ने सत्य को केवल भाषण का ही विषय नही बताया,
म विश्वास नहा ह, इसालए बह उन्होंने कहा-'जहाँ विषमता है वहाँ सत्य नही पलता । दुःखी है। भगवान महावीर को 'जिन' कहते है। क्योंकि जहाँ दारिद्रय है वह सत्य नही टिकता। सत्य जीवन है, उन्होंने अहिंसा के शत्रु गग और द्वेष, लोभ प्रौर प्रसयम और जीवन सत्य है। जिस में सत्य नहीं फिर वह चाहे को जीता है। हिंसा एक ऐमी शक्ति हैं जो मानव का व्यक्ति हो या समाज, व्यर्थ है। जहाँ सत्य को मृत्यु हाता विकास करने मे उपकारक है अतः जब तक कोई समाज है. वहां वह एक बोझ बन जाता है। जहाँ वणभद है। अपने दुर्गुणों का त्याग नहीं करता और सद्गुणों की राह जहाँ जाति भेद है, जहाँ ऊँच-नीच है, वहाँ सत्य का नहीं चलता तब तक प्रशान्ति बनी हुई है। हमे चाहिए स्थान कैसे मिले ? पन्थ और सम्प्रदायों ने सत्य को डुबो कि हम अहिंसा के सिद्धान्त पर दृढ श्रद्धा रखे । श्रद्धा के दिया। पन्थ का विचार सत्य नहीं, क्योकि वह रूढ़िवाबिना ज्ञान नही. और ज्ञान के बिना माचरण सार्थक दिता प्रौर दराग्रह की परिणति है। जहाँ अंधश्रद्वा है वहाँ नहीं। इसलिए हिंसा की मूल भावना क्या है। यह धर्म नही टिकता। धर्म का दूसरा नाम सत्य है । भगवान् समझना चाहिए। जीने की दो शैलियाँ सम्भव है-एक महावीर की दष्टि मे सत्य की प्ररूपणा मन, वचन, क्रिया खुद के लिए, और एक दूसरे के लिए। जीना सभी चाहते
द्वारा की जाती है। केवल सत्य भाषण सत्य नहीं है, हैं, मरना कोई नहीं चाहता, चीटी हो, या स्वर्ग का केवल सत्य क्रिया सत्य नही है, केवल सत्य चितवन ही देवता हो। जीने के इस सिद्धान्त से अहिंसा का प्रत्यक्ष
सत्य नही है । जहाँ प्राग्रह है, वहाँ एकान्त है। एक अंग, संबध हैं। कोई यह समझे कि हम तो जियें और दूसरे
जय प्रार दूसर यानी अंगी नहीं; एक प्रश यानी अंशी नही। यदि कोई की चिंता न रखें तो वह अहिंसा का परिपालक नही प्रश को ही सत्य मान ले तो वह मिथ्या या प्रसत्य होगा। कहला सकेगा। जहाँ निर्बल प्राणियों के प्रति दया का सत्य तो सर्वांगीण होता है। वह अनेकान्तात्मक होता है। भाव हैं, वहाँ अहिंसा का प्रारम्भ है। महिंसा के इस किसी हाथी का वर्णन करने में हाथी की पीठ को हाथों सिमान्त में कोई दबाव नहीं है । जहाँ अत्याचार होता है, कहें, या संड को हाथी कहें तो हाथी नहीं जाना जा वहाँ हिंसा अवश्य पाती है। अहिंसा कानून से नहीं पा सकता। वह तो सत्य का एक प्रश मात्र है। सकती, क्योंकि वह प्रात्मा की शक्ति है । कोई यह समझे सत्य केवल प्रागमों मे नही है। किसी ने कहा है, कि दबाव से पहिसा का पालन होगा तो यह सम्भव "धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां"। यह ठीक ही कहा है। नहीं। अहिंसा शरीर का गुण नहीं, प्रात्मा का गुण हैं। धर्म या सत्य केवल गुफा में चला गया है। सत्य को वह अन्तःस्थ शक्ति है। 'जियो और जीने दो' महिंसा का मन्दिरों में रखने से वह साकार होता नहीं। मूति सत्य स्वणिम सूत्र है। इसलिए कहा गया है कि जीव-दया सव नहीं, मतिमान सत्य है-प्रात्मा। सत्य की भी प्रात्मा में श्रेष्ठ है, वह रत्नचितामणि की तरह फल देने वाली होती है। उसका भी प्रास्वाद होता है। पाज लोग सत्य है । पाज के विज्ञान-युग में हिंसा की प्ररूपणा इसलिए चाहते हैं, सत्य की उपासना करते हैं, सत्य को अध्यं देते भावश्यक है, क्योंकि इस युग ने शाश्वत जीवन-मूल्यों को हैं। किन्तु क्या सत्य इस तरह मिलेगा? नहीं। सत्य तो कुचल दिया है। सत्य उसे नहीं दिखायी दे रहा है। सुन्दरता मे है। मन्दिर में मूर्ति रखी जाती है, उसका सत्य तो श्रद्धावान की पारित है; वह दुर्बल का पुरुषार्थ शान्त मौर वैराग्य भाव सत्य है। पत्थर सत्य नहीं हैं, नही है। इसलिए महात्मा गांधी ने उसे एक प्रबल शस्त्र पत्थर तो जगह-जगह विभिन्न प्राकार-प्रकार में हैं, किंतु समझा। स्पष्ट है, सुखी समाज के लिए पहिसानिष्ठ उनमें सत्य नही है। सत्य तो समन्वित है, वह बिखरा जीवन-प्रणाली ही उपादेय होती है।
हुमा नहीं है।