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भगवान महावीर का समाज-दर्शन
डा० कुलभूषरग लोख दे
प्राज लोग सत्य चाहते हैं, सत्य की उपासना करते है, सत्य को ये धरते हैं, किन्तु क्या इस कर्म शून्य प्राच रण से वह उपलब्ध हो सकेगा।
भगवान महावीर के धर्म का उद्देश्य दो प्रकार दिखायी देता है : ( १ ) व्यक्ति और समाज की निर्दोष प्रस्थापना (२) मनुष्य की माध्यात्मिक उन्नति का प्रधिष्ठान | इसका अर्थ यह हुआ कि व्यक्ति और समाज का गठन करते हुए उन्होंने व्यवहार-दृष्टि के साथसाथ निश्चय दृष्टि की स्थापना भी की। सारे जैनाचार का प्रयं ही जीवन को स्वच्छ और सबल बनाना है । जब हम समाज के संबंध में सोचते हैं, तब हमें लगता है कि व्यक्ति की प्रवृत्ति सदाचार और नीतिपूर्ण हो भगवान् महावीर ने अपने काल मे व्यक्ति और समाज के धर्म की ऐमी संहिता बनायो कि जिससे मनुष्य उत्तरोत्तर अधिक ईमानदार, सहिष्णु र कर्तव्यनिष्ठ जीवन व्यतीत कर सके इसलिए उन्होंने ऐसी विचारधारा प्रसूत की जिससे प्रत्येक व्यक्ति भोग और स्वार्थ के दृष्टिकोण से कार उठे, फिर वह चाहे व्यापारिक, राजनैतिक, समाज का कोई प्रबुद्ध विद्वान ही क्यों न हो? इस तरह उन्होंने प्रवर्तित किया कि धर्म के शुद्धाचरण के बिना किसी तरह को उन्नति सम्भव नहीं है।
भगवान् महावीर का युग कर्मकांड, मिथ्या भाडम्बर तथा पापाचार से भरपूर था । तब समाज का दृष्टिकोण सही नहीं था। कहा जाता है शास्त्रों का ज्ञाता यदि विवेकहीन हो, धौर व्यक्ति का प्राचरण यदि विषय परायण हो तो समाज को कालिख लगती है । समृद्ध समाज को कालिख लगती है । समृद्ध समाज नीति परायण होता है, इसलिए भगवान् महावीर ने समाज के उत्थान के लिए व्रत की संहिता प्रस्थापित की जिसमे क्षमा, सत्य, शौच, करुणा, मैत्री इत्यादि गुणों के विकास से
व्यक्ति और समाज की उन्नति सम्भव हो ।
भगवान महावीर के सामाजिक सिद्धान्तों के प्रालोडन से यह ज्ञात होगा कि मानव को अहिंसा, सत्य, प्रचयं ब्रह्मवयं और परि की आवश्यकता है। जिस समाज में क्षमा, मार्दवादि दस धर्मों का पालन किया जाता है, उसमें सुदृढता भाती है। व्यक्ति और समाज में सामंजस्य रहे इसलिए भगवान् महावीर ने कहा कि क्रोध को क्षमा से, मान को मार्दव से, माया को भार्जव से, और लोभ को शुचिता से जीतो भगवान् महावीर के समाज मे जाति, भाषा मोर वर्गादि भेद नही थे । वह समाज संप्रदाय की संकीर्णता से मुक्त था । भगवान् महावीर के समाज दर्शन के मूल आधार इस प्रकार हैं
हिसा
जहाँ क्रोध है वहाँ हिंसा है, और हिंसा है सबसे बड़ा पाप । इसलिए सर्वप्राणिमात्र संबंधि दया और समताभाव को अहिंसा कहा गया है। संसार में धर्म एक होता है, दो नहीं । महिसा सत्य का सबसे बड़ा प्राविष्कार है । सत्य एक होता है; उसमें भेद नहीं होते। हिंसा में भेद हैं, अहिंसा में नहीं। ऐसा कौन-सा सत्य है, जो हिंसा से संबंधित है ? वह है प्रेम जहाँ प्रेम है, वहाँ दया है जहाँ द्वेष है, वहाँ क्रूरता है। इसलिए महिला ने मनुष्य में जीने के विश्वास को जन्म दिया। कोई सम्प्रदाय यह नहीं मानता कि हिंसा से शांति प्राप्त होती है । प्राचार्य कुन्दकुन्द कहते है, "हिसा राग द्वेष है. जहाँ राग-द्वेष है वहाँ समता नही, स्थिरता नहीं"। जीवन को समर्थ बनाने की क्षमता समता में है, क्षमा में है, दया मे है और परोपकार में है ।
प्राज समाज और राष्ट्र का जीवन सर्वत्र प्रशांत एवं विश्वस्त है। अनावश्यक संघर्ष में मृत्यु है, समन्वय मे