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२०, अनेकान्त वर्ष २६, कि० १
अनेकान्त
महापरिग्रह से काम बिगड़ता है। सही बात तो यह है मौर राजे-महाराजे परिग्रही हो जायेगे। ऐसा नही है। कि परिग्रह के पीछे जो ममकार छिपा हुया है, अधिक से "प्रवचन सार" में कहा गया है कि जहाँ विषय वासना है, मधिक जोड़ने की जो भावना छिपी हुई है, वही दुःख. वहाँ दुःख है, वही परिग्रह है । इच्छा का प्रभाव ही सुख दायक है। अतः ज्यादा परिग्रह, यानी ज्यादा दुःख यह है (प्रव. १७)। निष्कर्ष अनिवार्य नहीं है, या परिग्रह रहित संयमी हो इस प्रकार भगवान महावीर ने समाज मे स्वस्थ पौर यह भी कोई जरूरी नहीं है। घर के सामने पाने वाले शुद्ध परम्परा की स्थापना के लिए पंचशील का सिद्धान्त भिखारी के पास एक समय की रोटी भी नही होती है तो प्रवर्तित किया। उनका यह प्रवर्तन समाज-धर्म है, व्यक्ति. क्या इसी लिए वह सबसे बड़ा अपरिग्रही कहा जाएगा धर्म है।
परमात्म प्रकाश टीका का कर्ता ब्र. जीवराज नहीं, श्वे. धर्मसी उपाध्याय हैं
ले० प्रगरचन्द नाहटा प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों को सही समझ बहुत प्रशस्ति को ठीक से पढ़ने पर मूल रचयिता का नाम भी कठिन कार्य है बहुत से व्यक्ति तो उन प्रतियों की भाषा ठीक से स्पष्ट हो जाता है जैसे महावीर तीर्थ क्षेत्र कमेटी लिपि को ठीक से समझ नहीं पाते कुछ प्रशस्तियो के भाव के प्रकाशित प्रशस्ति स ग्रह के पृष्ठ २३३ मे पद्यमजरी प्राशय को ठीक न समझने के कारण भूल भ्रान्तिपा होती पंचविशिका का रचयिता जगतराय बतलाया गया है पर रहती है उनका संशोधन प्रकाशित करना इसलिए प्राव- अन्तिम छप्पये और सोरठे से मालूम होता है कि जगत. श्यक होता है कि प्राजकल के शोध छात्र अनुकरण ही राय ने जमे कही वसे इसकी भाषा पाटक पुण्यहर्ष के अधिक करते हैं । वास्तविक तथ्य तक पहुँचने की गहराई शिष्य अभयकुशल ने स. १७२२ के फागुण सुदी १० को उनमे नही होती। संशोधन करने वाले का अनुभव भी बना दी। पाठक पुष्पहर्ष और शिष्य अभयकुशल श्वे. काफी बढ़ा-चढ़ा होना चाहिए अन्यथा बहुत वार एक
खरतरगच्छ के विद्वान थे। इन दोनों की पोर भी कई गल्ती के सुधारने में दूसरी मन्य कई गल्तियां कर बैठते
रचनाए प्राप्त है । पुण्यहर्ष रचित जिन पालित जिन रक्षित रास सं० १७०९ एक और हरिबल चौ ० स० १७१५
सरसा में रचित उपलब्ध है इनके शिष्य अभयकुशल ने अपने वे० विद्वानों ने दि० साहित्य का समय-समय पर मच्छा अध्ययन किया और उस ग्रन्थ को सरलता से सभी
गुरु पुण्यहर्ष का गीत ७ पद्यों में बनाया उन्होंने ऋषभदत्त लोग समझ सके इसलिए कई दिगम्बर ग्रंथों पर उन्होंने
गुरु चौ० सं० १७३७ महाजन भरतरी हरि शतक बाला सस्कृत और हिन्दी में टीकाए बनाई है और उनके प्राधार
बोध सं० १७५५ पौर विवाह पडल भाषा तथा चमत्कार
चिन्तामणि वृति ये ज्योतिष के भी दो ग्रंथ बनाये है प्रतः से स्वतन्त्र ग्रंथ भी रचे हैं इस सम्बन्ध में पहले मेरा एक
पप्रनन्दि पचविशिका भाषा इन्ही गुरु शिष्यों की रचना लेख प्रकाशित हो चुका है।
होनी चाहिए इस सम्बन्ध मे मैं पहले लिख चुका हूँ इसी तरह कई श्वेताम्बर यतियों पौर मुनियो ने दि० श्रावकों की एक अन्य रचना भट्टारकीय भण्डार अजमेर में प्राप्त के अनुरोष से दि० ग्रंथो की टीकाएं एव पद्यानुवाद बनाए है जिसका विवरण राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की है। उनमे जिन लोगों के अनुरोध से रचनाए की गई अथ सूची पृष्ठ २०५ मे छपा है । इसमे परमात्मा प्रकाश रचयिता के रूप में उन्हीं लोगों का नाम दे दिया है पर टीका का कर्ता ब. जीवराज लिखा है पर प्रशस्ति को