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१६० वर्ष २६, कि० ४-५
अनेकान्त
महान् ग्रन्थो के प्रकाशनार्थ राजस्थानवर्ती पिडवाडा में ही पढ़कर अपने विचार प्रकाश में लाने चाहिएं। क्योंकि भारतीय प्राच्य तत्व प्रकाशन समिति नामक संस्था और इन विद्वानो ने कषाय प्राभूतादि एवं उनकी टीकायें और ज्ञानोदय प्रिटिग प्रेस की स्थापना की गई है।
त्रिलोक प्रज्ञप्ति आदि के सपादन, अनुवाद और प्रस्तावना इस नये कर्म साहित्य को तैयार करने वाले कुछ आदि लिखने मे बड़ा परिश्रम किया है। उनको इस नई मुनियो का दर्शन मैंने गत मार्च मे अहमदाबाद में किया जानकारी पर पुनर्विचार करना आवश्यक हो गया है। और उनकी लगन, निष्टा और परिश्रम को देखकर उनके
मुनि जी हेमचन्द्र विजय जी ने प्रस्तावना मे लिखा प्रति सहज ही भक्ति भाव उमड पड़ा। जब इस नये कम है कि कपाय प्राभत और उसकी चणि दिगम्बर और साहित्य के ४ बडे ग्रन्थ मुझे पहले प्राप्त हुए थे तो मैने खेल के अलगाव होने से पहले के है और दोनो सप्रदायो उनका परिचय जन जनता विद्वानो को मिल सके, इमलिए
मे ये मान्य रहे है। उनमें दी हुई मान्यतायें श्वे० सप्रदाय लेख लिखकर "जैन सदेश" में प्रकाशित करवाया था,
से अनुमोदित है और श्वे० कर्म साहित्य में उनका उल्लेख अब इस नये कर्म साहित्य के कुल ६ भाग मुझे प्राप्त हो
व उद्धरण भी मिलता है । आर्य मग और नाराहस्ती श्वे० चुके है, १०-११वाँ छप रहा है। प्रत इस महान् कार्य
नंदी सूतस्थ में उल्लेखित है। दि. साहित्य में उनका की ओर जैन विद्वानो और समाज का ध्यान पुन. पाक
विवरण नहीं मिलता। नाग हस्ती के शिष्य यति वृषभ, पित कर रहा हूं।
चणि के कर्ता है । कपाय प्राभूत मूल के कर्ता गुणधर भी उपरोक्त नये कर्म साहित्य का प्रथम भाग खवग-मेठी वाचक वंश के है, जिस वाचक वश का उल्लेख और संवत् २०२२ प्रकाशित हुआ था उसके प्रस्तावना, मूल परपरा श्वे० स्थविरावली मे ही उल्लेग्वित है। कपाय गाथाये सस्कृत छाया और गुर्जर भाषानुवाद वाला ग्रथ ।
प्राभत चणि का रचनाकाल वीर सवत् ४६८ के लाभ अलग में भी प्रकाशित किया गया था । अत स्वोपज्ञ वृत्ति
का है अर्थान् अब तक दिगम्बर विद्वानी ने जो काल वाले बड़े सस्करण का मूल्य २१) ० है उसे जो नहीं।
माना था, उसमें काफी पहले का है। त्रिलोक प्रज्ञप्ति खरीद सके, वे इस छोटे ग्रन्थ को खरीद सकते है इसीलिए
यति वृपभ के रचित नही है, न उननी प्राचीन ही है। इसका मूल्य २१) ही रत्रा गया है।
यद्यगि त्रिलोक प्रज्ञप्ति नामक एक प्राचीन ग्रथ भी रहा 'खवग-सेठी की प्रस्तावना मुनि हेमचन्द्र विजय जी ने है पर वह अब उपलब्ध नही है। उसके प्राधार से जो ८ पेजी ५४ पृष्ठो की लिखी है उसमे पृष्ट १३ से ४८ त्रिलोक प्रज्ञप्ति रची गई, वही प्रकाशित हुई है । इस तक मे कपायप्राभृत मूल, चूणि और विशोक प्रज्ञप्ति के तरह श्वे. साहित्य के नये प्रमाणो के आधार से मुनि रचयिता और रचनाकाल के सम्बन्ध मे विस्तार से और हेमचन्द्र विजय जी ने जो विचारणा की है वह दि० नया प्रकाश डाला है । उसे तो दि० विद्वान प० हीरालाल विद्वानो को अवश्य ही पढकर अपने विचार प्रकट करने भी शास्त्री, प० कैलाशचन्द जी, प० बालचन्द जी, प० चाहिए। नये कर्म साहित्य के प्रकाशित भागो व जैन फूलचन्द जी, डा० आदिनाथ उपाध्याय आदि को अवश्य ग्रन्थावलियो में अवश्य रखने चाहिये।
वर्णी-वचनामृत वास्तव में धर्म को प्रभावना प्राचरण से होती है। यदि हमारी प्रवृति परोपकार-मय है तो लोग अनायास ही हमारे धर्म की प्रशंसा करेंगे और यदि हमारी प्रवृति और प्राचार मलिन हैं तो किसी की भी श्रद्धा हमारे धर्म में नहीं हो सकती।