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________________ जैनधर्म का नीतिवाद डा० राजबलीजी पाण्डेय एम० ए० डी० लिट् प्रत्येक धर्म धौर सम्प्रदाय में जीवन का एक पन्तिम लक्ष्य माना गया है और उसकी प्राप्ति केलिए साधन बतलाये गये है । सभी भारतीय धर्मों में जिनमें जैन-धर्म की भी गणना है यह बात पायी जाती है। जैन-धर्म में चरम लक्ष्य की प्राप्ति का मुख्य साधन नीति-मार्ग है । जैन धर्म मे नीतिवाद का प्राधान्य कब और कैसे हुआ, इस बात को जानने के लिए आवश्यक है कि हम देखें कि भारतवर्ष में धर्म के अन्तिम लक्ष्य और साधन में क्रमशः विकास कैसे हुआ? ऐतिहासिक क्रम मे सबसे प्राचीन धर्म वैदिक धर्म है। वैदिक सहिताओ के अध्ययन से मालूम होता है कि उस समय का धर्म 'देववाद' था जीवन का अन्तिम लक्ष्य ऐहिक सुखवाद था। पुत्र, कलत्र, स्वास्थ्य, दीर्घायु, धन, सम्पत्ति और ऐश्वर्य को लोग कामना करते थे और विश्वास करते थे कि देवताओं को प्रसन्नता से ही ये पदार्थ मिल सकते है । श्रत. देवताओ की प्रशसा मे और उनकी गुष्टि के लिए ऋक् और साम-वंदिक ऋचाओं - की रचना की गई थी। भारतवर्ष के इस प्राथमिक युग मे आत्म-जिज्ञासा पीर मुक्ति की कल्पना का जन्म ही नही हुआ था । भारतवर्ष मे धर्म के विकास में दूसरा चरण, ब्राह्मण ग्रन्थो मे पाया जाता है । ब्राह्मण-युग के धर्म को हम 'वेदवाद' कह सकते है। इस युग में भी जीवन का अन्तिम लक्ष्य इस लोक मे पार्थिव सुख और परलोक मे स्वर्ग की प्राप्ति थी, जहा पर पृथ्वी के अपूर्ण सुखो की पराकाष्ठा सभव थी। इसके लिए यज्ञ साधन थे और अनेक प्रकार के यज्ञों ने वेद-मन्त्रों के बल से देवताओं को वाछित पदार्थ देने के लिए विवश किया जाता था । भारतीय धर्म का तीसरा चरण उपनिषदों में दिखाई पडता है । इस समय मनुष्य बाह्य जगत् के प्राश्वयों और आकर्षणों से हटकर अन्तर्मुख होने लगा। धात्म-जिज्ञासा और मुक्ति की कल्पना का उदय हुआ। उपनिषदों का धर्म 'ब्रह्मवाद' था । ब्रह्म-प्राप्ति का साधक प्रात्म-ज्ञान अथवा ज्ञान था, यज्ञ और वेदमन्त्र की श्रावृत्ति नही । फिर भी अपनी समन्वय की नीति के कारण उपनिषद् ब्राह्मणों के कर्म-काण्डीय प्रभाव से अपने को मुक्त न कर सकी। भारतीय धर्म के उपर्युक्त विकास क्रम में जीवन के अंतिम लक्ष्य की प्राप्ति मे साधन रूप से नैतिक आचरण का कोई महत्वपूर्ण स्थान नही दिखाई पड़ता, यद्यपि कही कही उसकी ओर संकेत मिलता है । श्रागे चलकर भारतवर्ष मे बौद्ध और जैनधर्म का उदय हुआ । इन धर्मो ने उपनिषद् के मुक्ति - आदर्श को स्वीकार किया, किन्तु वैदिक और ब्राह्मण धर्म के चरम लक्ष्य ऐहिक तथा पारलौकिक सुखवाद और उसकी प्राप्ति के साधन मन्त्रपाठ श्रीर यज्ञ का पूर्णत परित्याग किया। उन्होने मानव जीवन के उत्थान और चरम लक्ष्य की प्राप्ति के लिए नैतिक आचरण को प्रमुख स्थान दिया । इन दोनो मे भी बौद्ध धर्म 'बुद्धिवाद' पर अधिक जोर देता रहा; नैतिक श्राचरण की प्रखरता मे वह जैन-धर्म का साथ न दे सका। इस प्रकार नीतिवाद का समर्थक जैन-धर्म ही हुआ, यद्यपि गौणरूप से इसको उपयोगिता अन्य धर्म भी मानते रहे । नीतिमार्ग के अवलम्बन का अर्थ है अपने दायित्व का बोध, स्वावलम्बन और स्वातन्त्र्य । इसमे बाहरी विधि ( अथवा चोदना प्रेरणा अथवा धाज्ञा ), दूसरो की सहायता और दया, तथा प्रलोभन प्रादि का स्थान नही है । इस मार्ग पर चलने के लिए जैन-धर्म को कई प्राचीन रूडियो और परम्परा का सामना करना पड़ा | सबसे पहले वेदी के प्रमाणवाद का सामना करना पड़ा । वेदवाद वेदो को अपौरुषेय मानकर उनको प्रति मानुष महत्त्व दे रखा था । वेदवादियों ने समझ लिया था कि किसी प्रतिमानुष सत्ता ने मानव जाति की समस्याओं को सदा के लिए सोच लिया है और उनके हल के लिए एक विधि-शास्त्र
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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