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________________ कषाय मामृत, चूर्ण और त्रिलोक-प्रज्ञप्ति संबधी महत्वपूर्ण और नई विचारणा ले० श्री अगरचन्द नाहटा जैन-धर्म का कर्म-सिद्धान्त बहुत ही महत्वपूर्ण और सप्रदायों में प्राप्त है। कर्म मबंधी मूल और टीका के अनोखा है। कर्मों के सबध में जितना विचार और विव- रूप मे वर्तमान जो दोनो सप्रदायो का साहित्य उपलब्ध ग्ण जैन विद्वानो ने किया व लिखा है उतना विश्व के है, वह कई लाख श्लोक परिमित है। प्राचीन जैन आगमों किमी भी धर्म के विद्रानो ने नही किया। मौखिक रहने मे कर्मों मबधी विवरण बीज रूप मे मक्षिप्त मिलता है। के कारण कम सबधी जो बहत बडा पूर्व नामक ग्रन्थ स्वतत्र ग्रन्थो मे 'कपाय प्राभूत' आदि ग्रन्थ प्राप्त व था वह तो काफी र.मय पहले ही लुप्त हो गया पर उसके प्रसिद्ध है। कपाय-प्राभत और महावंध तथा उनकी प्राधार मे लिम्बे हा कई ग्रन्थ श्वे० और दि० दोनो टीका दक्षिण भारत के दि० शास्त्र भडारो मे ताडपत्रीय प्रतियो के रूप में प्राप्त थी, वह सारा साहित्य अब प्रकाऐसा लगता है कि कालान्तर में कभी इसे वर्तमान शिन हो चका है। श्वे० कर्म प्रकृति, पच सग्रह कमंग्रथ प्रचलित रूप दे दिया गया हो। एक समय ऐमा प्राया ग्रादि अनेको ग्रथ और उनकी टीकायें प्रकाशित हो ही भी था जब कि कालदोष के कारण म्मृति क्षीण होने में श्रुत जन का धीरे-धीरे लोप होने लगा था और तब चकी है। इस विशाल कर्म-माहित्य का अध्ययन और केवल एक अग के ज्ञाता प्राचार्य धर मेन ने प्राचार्य श्री पालोहन करके ममम्न प्राप्त माहित्य के प्राधार से नये पुष्पदन्त और भूतवलि द्वारा लिपिबद्ध करा कर उसका कर्म मबबी ग्रथ तार करने की योजना स्वर्गीय श्वे. उद्धार हुआ था। हो सकता है कि इस प्रक्रिया में इस आचार्य विजय प्रम मूरि जी ने बनाई थी। वे स्वय जैन महामन्त्र मे प्राचार्य, उपाध्याय और सब साधुप्रो को कर्म माहिग के सबसे बड़े विद्वान थे ही पर उन्होंने अपने जोडकर वर्तमान सशोधित रूप दे दिया गया हो। शिष्य प्रमिप्यों को भी कम माहित्य के मर्मज बनाने का तत्कालीन रचित षटवण्डागम के प्रथम खण्ड में यह महा महज प्रयत्न किया। इसके फलस्वरूप प्राचार्य विजयजब मत्र मगलाचरण के रूप में प्रचलित पेंतीस अक्षरो मे है मूरि जी, भवनमान मूरि जी तथा जयघोष विजय जी भी । स्व० डा. हीगलाल जी जैन ने भी एक स्थान पर धर्मानन्द विजय जी, हेमचन्द्र विजय जी, गुणरत्न विजय श्री पुष्पदन्ताचार्य को इस महामन्त्र का आदि कर्ता जी अादि १०-१५ मे विशिष्ट विद्वान तैयार किये, बताया है। जिन्होंने विजय प्रेम मूरि जी की भावना को मूर्तरूप भले ही मन्त्र का वर्तमान प्रचलित रूप अनादि न देकर सफल बना दिया है। . हा परन्तु हम कृतज्ञ हाना चाहिए उन आचार्यों का कि उपरोक्त मनियो ने समस्त जैन कर्म माहित्य को १७ उन्होने उसका यह मशोधन ऐसा अद्भुत और चमत्कृत बडे-बड़े भागो में (करीब २।।-३ लाख श्लोक परिमित करने वाला किया है कि वह केवल मन्त्र न रहकर । प्राकृत सग्कृत मे) तैयार करके प्रकाशित करने की योजना द्वादशाङ्गरूप एव भाषा विज्ञान का आधार बन गया है, बनाई । कूछ मनि तो प्राकृत गाथाये बनाते है, कुछ उन जैसा कि आदरणीय ज्योतिषाचार्य जी ने अपनी अनूठी पर विस्तृत सस्कृत टीकाएँ लिखते है। कुछ मशोधन और खोजपूर्ण पुस्तक "मङ्गल मन्त्र णमोकार-एक आदि कार्य करते है इस तरह एक पूरा मण्डल ही इम अनुचिन्तन" मे बड़ी खूबी के साथ सिद्ध किया है। फिर भागीरथ कार्य में जुटा हुआ है । उक्त १७ भागो मे स ६ भी यह अनुसन्धान का विषय है। भाग तो गत ८ वर्षों में प्रकाशित भी हो चुके है। इन
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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