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णमोकार मंत्र का प्रारम्भिक रूप क्या है ?
श्री प्रताप चन्द्र जैन, आगरा
मंत्र वह है जिसके द्वारा निजानुभव का ज्ञान हो। नही है और साहूणं पाठ इस बात का द्योतक है कि यह जैनागम (श्रमण संस्कृति) मे णमोकार मन्त्र एक महान मन्त्र अनादि नही है।" शान्तिदायक और सुखकारी मत्र है। विद्वान लेखक डाक्टर साहब का यह कहना तो ठीक है कि साधु ज्योतिषाचार्य डाक्टर नेमिचन्द जी ने अपनी खोजपूर्ण भी परम्परागत अनादि है परन्तु इस आधार पर महामन्त्र पुस्तक "मंगल-मंत्र णमोकार-एक अनुचिन्तन" के प्रामुग्व के पेतीस अक्षरो वाले इस प्रचलित रूप को अनादि मान मे लिखा है कि "यह नमस्कार मन्त्र है। इसमें ममम्त लेना विनयपूर्वक गले नहीं उतरता क्योकि उस दशा में पाप मल और दुष्कर्मों को भस्म करने की शक्ति है। एक शका तो यह होती है कि क्या ऊचे पदधारी प्राचार्य णमोकारमन्त्र मे उच्चरित ध्वनियों से प्रात्मा मे धन और अपने से लघु पद वाले उपाध्यायों और साधुनो को ऋणात्मक दोनों प्रकार की विद्युत् शक्तियों उत्पन्न होती नमस्कार करेंगे और क्या उपाध्याय अपने से नीचे पद है, जिससे कम कलङ्क भस्म हो जाता है। यही कारण है. वाले साधुनो को नमस्कार करेगे ? यदि नही तो यह मत्र कि तीर्थकर भगवान भी विरक्त होते ममय सर्व प्रथम हम रूप में न प्राचार्यों के लिए हो सकता है और न इसी महामंत्र का उच्चारण करते है तथा वैराग्यभाव की उपाध्यायो के लिए। इगके अतिरिक्त क्या कोई प्राचार्य, वद्धि के लिये पाये हुए लौकान्तिक देव भी इसी महामन्त्र उपाध्याय और साधु स्वय को भी नमस्कार करेगा क्यो का उच्चारण करते है । यह अनादि है। प्रत्येक तीर्थयार कि सब मे तो वह स्वय भी आ जाता है। हाँ अन्य सभी के कल्पकाल मे इसका अस्तित्व रहता है।"
जीवो के लिए हो सकता है। प्रचलित णमोकार मन्त्र में निम्नलिखित पनीम कलिग सम्राट् खारवेल द्वारा निर्मित हाथी-गुम्फा अक्षर है जिनमें अरिहंत मे लेकर समस्त साधुओं तक को पर जो लेख है और जो पुरातत्त्व तथा इतिहास की दष्टि भी नमस्कार करने का विधान है।
से बहुत महत्त्वपूर्ण है उसकी प्रथम पंक्ति में यह मन्त्र णमो अरिहन्ताणं, णमो सिद्धाणं, णमो पाइरियाण। केवल निम्नलिखित चौदह अक्षरों मे अकित है :णमो उवज्झायाण, णमो लोए सव्व साहूण ।।
नमो अरिहंतानं (१) नमो सत सिधानं ॥ आदरणीय डाक्टर साहब ने इस अनुचिन्तन में बड़े
(देग्विये जैन सदेश का छठा शोधाक) ही विद्वत्तापूर्ण ढंग से सिद्ध करने का प्रयास किया है कि शिला लेख में इसके लेखन की तिथि नही मिलती पेतीस अक्षरो वाला यह णमोकार मन्त्र समस्त द्वादशाग है। हो सकता है कि कुछ अक्षरो की भाति वह भी भग्न जिनवाणी का सार है, इसमे समस्त श्रुतज्ञान की अक्षर हो गई हो परन्तु इस लेख से यह तो स्पष्ट है कि वह संख्या निहित है । जैन दर्शन के तत्त्व, पदार्थ, द्रव्य, गुण, शिला लेख ईसापूर्व चौथी शताब्दी का है। मानो आज से पर्याय, नय, निक्षेप, प्रास्रव और बन्ध आदि भी इस मन्त्र दो हजार तीन सौ बर्ष से भी अधिक प्राचीन । इस मन्त्र मे विद्यमान हैं। विद्वान डाक्टर साहब ने इस मन्त्र को का इससे पुराना लेख शायद ही अन्यत्र कही उपलब्ध हो । इसी रूप में अनादि बताया है परन्तु आगे चलकर उन्होंने और यह रूप है भी ऐसा जो अनादि हो सकता है। इस यह भी लिखा है कि "कुछ ऐतिहासिक विद्वानों का अभि- रूप में प्राचार्य और उपाध्याय सहित सभी जीव इसका मत है कि साधु शब्द का प्रयोग साहित्य में अधिक पुराना उच्चारण कर सकते हैं।