________________
जैन तत्त्वज्ञान लेखक-पं० श्री सुखलाल जी संघवी
व्याख्या
__ में आगे बढ़ता है। यही बात मनुष्य जाति के विषय में . विश्वके बाह्य और प्रान्तरिक स्वरूप के सम्बन्ध मे भी है। मनुष्य-जाति की भी बाल्य अादि क्रमिक अवस्थाएँ तथा उसके सामान्य एव व्यापक नियमों के सम्बन्धों में अपेक्षा-विशेष से होती है। उनका जीवन व्यक्ति के जीवन जो तात्त्विक दृष्टि से विचार किये जाते है उनका नाम की अपेक्षा बहुत अधिक लम्बा और विशाल होता है। . तत्त्वज्ञान है। ऐसे विचार किमी एक ही देश, एक ही अतएव उसकी बाल्य आदि अवस्थाओ का समय भी उतना जाति, या एक ही प्रजा में उद्भूत होते है और क्रमश. ही अधिक लम्बा हो यह स्वाभाविक है। मनुष्य जाति विकसित होते है, ऐमा नहीं है। परन्तु इस प्रकार के जब प्रकृति की गोद मे आई और उमने पहले बाह्य विश्व विचार करना यह मनुष्यत्वका विशिष्ट स्वरूप है, अतएव को अोर अाख खोली तब उसके सामने अद्भुत और जल्दी या देरी से प्रत्येक देश में निवाम करने वाली प्रत्येक चमत्कारी वस्तुएँ तथा घटनाएं उपस्थित हुई। एक अोर प्रकार की मानव-प्रजा मे ये विचार अल्प या अधिक अंश सूर्य, चन्द्र और अगणित तारामण्डल और दूसरी ओर मे उद्भूत होते है। और ऐसे विचार विभिन्न प्रजानो से समुद्र, पर्वत, विशाल नदोप्रवाह, मेघगर्जनाए” और विद्युत् पारस्पारिक सम्बन्ध के कारण और किसी समय बिलकुल चमत्कारोने उमका ध्यान आकर्षित किया। मनुष्यका स्वतन्त्ररूप से भी विशेष विकसित होते है तथा सामान्य मानस इन सब स्थूल पदार्थों के सूक्ष्म चितन में प्रवृत्त भूमिका से पागे बढ़ कर वे अनेक जुदे-जुदे प्रवाह रूप से हुअा ओर उसके हृदय मे इस सम्बन्ध में अनेक प्रश्न फैलते है।
उद्भूत हुए। जिस प्रकार मनुष्य के मस्तिष्क में बाह्य __पहले से आजतक मनुष्य जाति ने भूखण्ड के ऊपर जो
विश्व के गूढ और अतिमूक्ष्म स्वरूप के विषय में उसके तात्त्विक विचार किये है वे सब प्राज उपस्थित नहीं है, सामान्य
र सामान्य नियमो के विषय में विविध प्रश्न उद्भूत हुए, उसो तथा उन सब विचारो का ऋमिक इतिहास भी पूर्णरूप से प्रकार प्रान्तरिक विश्व के गढ़ और अतिसूक्ष्म स्वरूप के हमारे सामने नही है, फिर भी इस समय इस विषय मे जो विषय में भी उनके मनमे विविध प्रश्न उठे। इन प्रश्नो कुछ थोडा बहुत हम जानते है उस परसे इतना तो निवि- की उत्पत्ति ही तत्त्वज्ञान की उत्पत्तिका प्रथम सोपान है। वाद रूप से कह सकते है कि तत्त्वचितन की भिन्न-भिन्न ये प्रश्न चाहे जितने हों और कालक्रम से उसमे से दूसरे
और परस्पर विरोधी दिखाई देने वाली चाहे जितनी मुख्य और उपप्रश्न भी चाहे जितने पैदा हो फिर भी उन धाराये हों फिर मी इन सब विचार-धाराग्रो का सामान्य सब प्रश्नो को सक्षेप मे निम्नप्रकार मे सकलित कर सकते स्वरूप एक है । और वह यह है कि विश्व के बाह्य तथा है। अान्तरिक स्वरूप के सामान्य और व्यापक नियमो का
तात्त्विक प्रश्न रहस्य ढढ निकालना।
प्रत्यक्षरूप से सतत परिवर्तनशील यह बाह्य विश्व कब तत्त्वज्ञान की उत्पत्तिका मूल
उत्पन्न हुआ होगा ? किसमे से उत्पन्न हुआ होगा स्वयं कोई एक मनुष्य पहले से ही पूर्ण नही होता परन्तु उत्पन्न हुआ होगा या किसी ने उत्पन्न किया होगा? वह बाल्य अादि विभिन्न अवस्थाओं मे से गुजरने के साथ और उत्पन्न नहीं हुआ हो तो क्या यह विश्व ऐसे ही था ही अपने अनुभवों को बढ़ा करके क्रमशः पूर्णताकी दिशा और है ? यदि उसके कारण हो तो वे स्वयं परिवर्तन