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सुकवि खेता और उनकी रचनाएँ
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काल सूचक पद्य भी पाया जाता है। जिससे इसकी रचना सम्भव है कवि ने लम्बी आयु नही पायी हो और संवत संवत १७५७ के मंगसिर वदी मे हुई सिद्ध होता है। और संवत १७६० के बाद ही उनका निधन हो गया हो । संवत सत्तर सतावन्न, मगसिर मास धुरि परव धन्न। अत. कवि का जन्म संवत १७२० और निधन सवत १७६० कोती गजल ऋतु वसज लायक सुनत प्राज गुणमात्र। के करीब तो माना जा सकता है।
छठी रचना 'जिन चन्द्र मूरि छन्द' हमारे संग्रह में मेवाड़ मे १८वी शताब्दी के अन्त में तपागच्छीय है। और रचना हिंगलाज भवानी छंद की भी एकमात्र कवि दलेप या दौलत विजय कवि हुआ जिसने खुमाण प्रति हमारे संग्रह में है। इसकी पद्य सख्या २५ है । प्रति रासो बनाया और विजयगच्छीय कवि मान ने राजविलास के एक बोर्डर पर दीमक लग जाने से प्रथम पद्य के कुछ और बिहारी सतसई की टीका बनाई। ये मेवाड़ के १८वीं शब्द नष्ट हो गये है । यह प्रति १६वी शताब्दी की लिखी शताब्दी के उल्लेखनीय कवि थे। हई है। उपरोक्त 'जिनचन्द्र मूरि छन्द' की भी अन्य कोई
डा. ब्रजमोहन जावलिया का एक विस्तृत और प्रति कही प्राप्त नही हुई, हमारी प्रति अठारहवी शताब्दी शोधपूर्ण लेख-'मेवाड का जैन साहित्य' प्रताप शोध की लिखित है।
प्रतिष्ठान, उदयपुर की 'मझमिका' नामक पत्रिका में 'खेता' नाम का इसी समय में एक और जैन कवि प्रथम अङ्क मे सन् १९७१ में प्रकाशित हया है। यद्यपि हो गया है जिसकी रचना धन्नारास का विवरण जैन इस लेख में काफी गलतियाँ रह गई है फिर भी मेवाड के गुर्जर कवियो भाग २ पृष्ठ २६६-७७ मे प्रकाशित हो जैन साहित्यकारी और उनकी रचनायो का काफी विवचुका है। यह रास सवत १७३२ मे मेवाड के वैराढ गाव रण मिल जाता है, अत: बहुत ही उपयोगी है। में रचा गया है। पर इसके रचयिता ग्येता कवियो का
इस लेख में खेतरमिह नामक एक और रचयिता का गच्छ के पूज्य दामोदर के शिष्य थे। अत. प्रस्तुत खरतर विवरण दिया गया है। यह विवरण एक नई सूचना देता गच्छीय मूकवि खेता से भिन्न ही है। मुनि जिनविजय जी लिए यहाँ 723 ने उदयपुर गजल का साराश देते हए लिखा था कि इस
'करूणोदधि और खेतसी'- ये कौन और कहां के थे इत गजल का कर्ता जती खेतानामक है जो अपने को
इस विषय में कोई सूचना नहीं मिलती। 'वित्रमी शम्योखरतर गच्छ का कहता है। इसने अपने गुरु वगैरह का
द्वार' नामक खेतमी कृत ग्रन्थ में वह अपने को 'पृथ्वीराज कोई नाम निर्देश नही किया जिससे यह नहीं जाना जाता
रासो' का उद्धारक बताता है। उसने अपने गुरू का नाम कि वह कहां और कब हुआ। सम्भव है यह कवि मेवाड़
'करुणोदधि' दिया है । पृथ्वीराज रासो के वृहद् मस्करणों का ही हो क्योकि इसकी भाषा मे मेवाड़ी की झलक
की अन्तिम पुष्पिकानो मे 'करुणोदधि' स्वयं को पृथ्वीराज स्पष्ट दिखाई दे रही है।
रासो का महागणा अमरसिंह प्रथम के आदेश से उद्धार मनि जिनविजय जी को कवि खेता के सम्बन्ध मे
करने वाला बताता है । पृथ्वीराज रामो पर शोध खोज विशेष जानकारी नही थी इसलिए ही मैने यह शोधपूर्ण
करने वाले सभी विद्वान पुष्पिका में 'करुणोदधि' नाम को लेख लिखना आवश्यक समझा।
नही समझ कर व्यर्थ की अनेक ऊहापोह कर गये है। खरतर गच्छीय कवि खेता की सबत १७५७ के बाद
खेतसी राजसिह के पुत्र राजसिंह ? के आश्रित था। की कोई संवत लेख वाली रचना नही मिलती। २-३ और भी फुटकर रचनायें मिलती है उनमे एक अश्लील सम्भव है करुणोदधि विशेषण हो। यह खेतसी भी भी है। इसमे कवि की रसिक वृत्ति का पता चलता है। जैन लगता है।