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१६६ वर्ष २६, कि० ४-५
अनेकान्त
कि अन्य स्थानों और अन्य देवी देवताओं के मन्दिर का नवग्रह छंद सं० १७४४ जेठ वदी १० से सं० १७४८ किया है। कवि की एक रचना हिंगलाज भवानी छन्द श्रा० व० १२ की कवि की चौथी रचना हिन्दी चित्तौड़ भी हमारे संग्रह मे है इसे भी शक्ति या देवी उपासना की गजल है। इसके प्रारम्भ मे चतुरभुज के चरण को चित्त मे ओर विशेष आकर्षण या झकाव प्रतीत होता है जो बहुत लाकर चित्तौड़गढ़ का वर्णन करने को लिखा है। बासठ सम्भव है इसके घरेलू पूर्व सस्कारो के कारण हो। पद्यों की इस रचना की कई प्रतियाँ हमारे संग्रह में है। रचनाएँ:
इसके अन्तिम पद्यो मे कवि ने अपना गच्छ नाम और कवि की दो रचनाएँ सवत १७४३ की रची हुयी रच
रचना काल का उल्लेख करते हुए लिखा है :प्राप्त है जिनमे से १ प्रथम है-चौबीस तीर्थङ्करो के 'खरतर' जाति कवि 'खेताक', पाखें भोज्यं एताक । स्तवनरूप-'चौबीसी'। इसकी प्रति कोटा भण्डार मे है संबत संतर से अड़ताल, श्रावणमास ऋतु वरसात । और नकल महो० विनयसागर जी के संग्रह मे है । सवत विधि परव वारमी तेरीक, कोनी गजल पठीयो ठोकि ॥६१ १७४३ मे हीरवास में इसकी प्रति लिखी हुयी है। इस
यह गजल स्वर्गीय मुनि श्री कातिसागर जी ने रचना मे कवि ने अपना दीक्षित नाम 'दया सुन्दर' का ही फारबस गजराती साहित्य सभा बम्बई के त्रैमासिक पत्र प्रयोग किया है। जब कि अन्य रचनाओं में खेता खेतल में तीस वर्ष पहले प्रकाशित की थी। इसके बाद नगर या 'खेतसी' इन गृहस्थावस्था के नामो का प्रयोग किया
वर्णनात्मक हिन्दी पद्य संग्रह मे उन्होने फिर प्रकाशित गया है। इससे मेरा यह भी अनुमान है कि सवत १७४३
की। इस चित्तौड़ और उदयपुर गजल इन दो की ही के आस-पास ही कवि के वृद्ध गुरू 'दयावल्लभ' गणि
कवि रचनायो मे अधिक प्रसिद्धि रही है। इनकी भाषा स्वर्गवासी हो गये थे। अतः पीछे कवि सम्भवत' कुछ
राजस्थानी मिश्रित खड़ी बोली है। प्रारम्भ के दो पद्य स्वच्छन्दी हो गये हो; जिससे अपने दीक्षित नाम को
नीचे दिये जा रहे है । जिससे इसकी भाषा और शैली का प्रधानता न देकर पूर्वावस्था के प्रसिद्ध नाम को महत्व
पाठको को आभास मिल जायगा। देता गया।
गढ़ चित्तौड़ है वंका कि, मान समंद मै लंका कि। ___ कवि की दूसरी रचना 'बावनी' संज्ञक हमारे संग्रह
वेडच्छ पूर तल वहतीक पर गंभीर भीरहती क ।२ में है। इसमे ६४ पद्य है। वह भी मंगसिर मुदी ६ शुक्र
अल्ला देत अल्लादीन फुल्ला बड़ बधी परवीन । वार को दहरवास ग्राम मे चौमासा करते हुए रची गयी
गैबी पोर हैं गाजीक अकबर अवलीया राजीक ।३ है। इसके पद्यो मे कही खेता कहीं खेतल नाम के साथ
पांचवी भी हिन्दी रचना 'उदयपुर गजल' संवत कवि और सुकवि विशेषणों का भी प्रयोग किया है।
१७५७ मे रची गयी है। इसके प्रारम्भ में भी एक लिंग इसमे कवि अपने को उस समय अच्छा कवि मानने लग
और नाथ द्वारे के नाथ को स्मरण किया गया है। अस्सी गया था। वावनी के अन्तिम पद्य मे कवि ने अपनी गुरु
पद्यों की इस गजल को मुनि जिनविजय जी ने भारतीय परम्परा, रचनाकाल, रचना स्थान का उल्लेख करते हुए विद्या वर्ष १ क ४ के पृष्ठ ४३० से ४३५ में तीस वर्ष लिखा है :
पहले प्रकाशित की थी। साथ ही उन्होंने इस गजल का सम्बत सत्तर याल, मास सुदि पक्ष मगसिर,
सारांश भी पृष्ठ ४२० से ४२४ तक मे दे दिया था। तिथि पूनिम शुक्रवार, थई बावन्नी सुथिर, उन्हे प्राप्त प्रति में इस गजल के रचनाकाल वाला पद्य बारखरो हो बंध, कवित्त चौसठ कथन गति, नहीं था। पर इसमे महाराणा अमरसिंह और ढेबर के बहरवास चौमास में, सिणि रह्या सुखी प्रति, पास के जयसमुद्र का उल्लेख मिलने से इसका रचनाकाल श्री जनराज सुरिसवर, दयावल्लभ गणि ताससिव, संवत १७५५ से १७६७ के बीच का बतलाया था। पर सुप्रसाद तासश्वेल सुकवि लहि जोडि पुस्तकलिखि ६४ हमारे संग्रह मे इस गजल की कई प्रतियां है उनमें रचना.
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