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जैन तत्त्वज्ञान
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विहीन नित्य ही होने चाहिए या परिवर्तनशील होने
उत्तरों का संक्षिप्त वर्गीकरण चाहिश ? ये कारण भिन्न-भिन्न प्रकार के होगे या नमग्र आर्य विचारको के द्वारा एक-एक प्रश्न के सम्बन्ध में बाह्य विश्वका कारण केवल एक रूप ही होगा? उन दिने भिन्न-भिन्न उत्तर और उनके विषय में भी मत विश्व की व्यवस्थित पोर नियमबद्ध जो मचालना और भेद की भावाये अभार है। परन्तु सामान्य नीति में हम रचना दष्टिगोचर होती है वह बुद्धिपुर्वक होनी चाहिए या मर्थप मे उन उत्तरी का वर्गीकरण करे तो इस प्रकार कर यंत्रवत् अनादिसिद्ध होनी चाहिए ? यदि वद्धिपूर्वक विश्व
सकते है। एक विचार प्रवाह ऐसा प्रारम्भ हुअा कि वह व्यवस्था हो तो वह किमकी बुद्धिजी आभारी है? क्या
बाह्य विश्व को जन्य मानता था । परन्तु वह विश्व किमी वह बद्धिमान तत्त्व म्वय तटस्थ रह करके विश्वका नियमन
कारण में मे विनकुल नया ही—पहले हो ही नही, वैगे करता है या वह स्वय ही विश्वका से परिणमता है या
उत्पन्न होने का निषेध करता था और यह कहता था कि
न ग्राभासित मात्र होता है ?
जिस प्रकार दूध मे मक्वन छिपा रहता है और कभी उपयुक्त प्रणाली के अनुसार आन्तरिक विश्वके सम्बन्ध
केवल आविर्भाव होता रहता है उसी प्रकार यह मारा मे भी प्रश्न हा कि जो यह बाह्य विश्वका उपभोग करता स्थन विश्व किमी मूक्ष्म कारण में से केवल प्राविर्भाव है या जो वाद्य विश्व के विषय में और अपने विषय विचार होता रहता है और यह मूल कारण तो स्वतः अनादि करता है यह तत्त्व क्या है ? क्या यह अहरूपमे भापित मिद्ध है। होने वाला तत्व वाह्य विश्व जैसी ही प्रकृतिवाला है या दूसरा विचार प्रवाह यह मानता था कि बाह्य विश्व किनी भिन्न स्वभाव वाला है ? यह अान्तरिक तत्त्व किमी एक कारण मे से उत्पन्न नही हुया हे परन्तु स्वभाव अनादि हे या वह भी कभी किसी अन्य कारणमे से उत्पन्न मे ही विभिन्न ऐसे उसके अनेक कारण है, और इन कारणों हया हे ? अहरूप में भासित होने वाले अनेक तत्त्व में भी विश्व दुध में मक्खन की तरफ छिपा रहता नहीं वस्तत भिन्न ही है या किसी एक मूल तत्व की परन्तु भिन्न-भिन्न काष्ठखण्डो के सयोग से जैम एक गाडी निमितियाँ है? ये सभी सजीव तत्त्व वस्तृत भिन्न ही नवीन ही तैयार होती है उमी प्रकार उन भिन्न-भिन्न है तो क्या वे परिवर्तनशील है' या मात्र कूटस्थ है। प्रकार के मूल कारणो के मल कारणों के सश्लेषण-विश्लेषण इन मब तत्त्वो का कभी अन्त पाने वाला है या वे काल
मे से यह बाह्य विश्व बिलकुल नवीन ही उत्पन्न होता की दृष्टि से अन्तरहिन ही है ? इसी प्रकार ये मय देह
है। पहला परिणामवादी है और दूसरा कार्यवादी । ये मर्यादित तत्त्व वस्तुत. देश की दृष्टि से व्यापक है या गोजिर जाति या उत्पत्ति मर्यादित है?
के सम्बन्ध में मतभेद रखते होने पर भी प्रान्तरिक विश्व ये और उनके जैसे दूसरे बहुत से प्रश्न तत्त्वचितन के
के स्वरूप के सम्बन्ध मे मामान्य रूप से एकमत थे । दोनो प्रदेश में उपस्थित हुए। इन मब प्रदनो का या इनमे में
यह मानते थे कि यह नामक पात्मतत्त्व अनादि है। वह कुछ का उत्तर हम विभिन्न प्रजापो के तात्त्विक चितन
न तो किमी का परिणाम है और किसी कारण मे से के इतिहास में अनेक प्रकार से देखते है। ग्रीन जिारको
उत्पन्न हया है। जिस प्रकार वह प्रात्मतन्त्र अनादि है ने बहत प्राचीन काल गे इन प्रानी की ओर दृष्टिपात
उगी प्रकार देश और काल दोनो दप्टिो से अनन्त भी करना प्रारम्भ किया। उनका चितन अनेक प्रकार से
है । और वह आत्मतत्व देहभेद से भिन्न-भिन्न है, वास्तविकसित हुआ जिसका कि पारचात्य वन्यज्ञान में महत्त्व
विक रीति से एक नही है। पूर्ण भाग है। पार्यावर्त के विचारको ने नो ग्रीक चितकों के पूर्व हजारो वर्ष पहले से इन प्रश्नो के उत्तर प्राप्त करने तीमग विचार प्रवाह ऐसा भी था कि जो बाह्य के लिए विविध प्रयत्न किये जिनका इतिहास हमारे मामने विश्व और प्रान्तरिक जीव जगत् दोनों को किसी एक स्पष्ट है।
अखण्ड सत् तत्त्व का परिणाम मानता और मूल मे बाह्य