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________________ १८०, वर्ष २६, कि० ४-५ अनेकान्त करने से तुझे पूर्वोक्त, गुप्ति, समिति और तप आदिक जाएगा, तब तेरे लिए रत्नत्रय की पूर्ति का होना भी स्वयमेव ही प्राप्त हो जायेंगे। कठिन नही रहेगा। एवमक्लेश गम्येऽस्मिन्नात्माधीनतया सदा। परिणाम विशुद्धयर्थ तपो बाह्य विधीयते । श्रेयो मार्गे मति कुर्याः किं बाह्ये तापकारिणि ॥ नहि तन्दुलपाक: स्यात् पावकादि परिक्षये ॥ हे पात्मन् ! सांसारिक कार्यों मे बुद्धि लगाने से हे आत्मन् ! जैसे चावल और जल के मौजूद रहने आत्मोद्धार नही हो सकता। इसलिए मोक्ष मार्ग मे पर भी बाह्य कारण अग्नि और बटलोई आदिक न होने प्रवृत्ति करना ही सर्वथा उचित है । यह मोक्ष मार्ग स्वा- पर भी भात नहीं बन सकता, उसी प्रकार परिणामों की धीन है, अतएव अनायास साध्य भी है । विशुद्धि भी बाह्य तप के बिना नही हो सकती । इसलिए शुष्क निर्बन्धतो बाहो, मुह्यतस्तव हृद्व्यथा। परिणामों की विशुद्धि के लिए बाह्य तप करना आवप्रत्यक्षितंव नन्वात्मन् ! प्रत्यक्षनिरयोचिता ॥ श्यक है। हे पात्मन् । पर पदार्थो मे मोह करने से तुझे जो परिणाम विशुद्धिश्च, ब्राह्म स्यानिस्पृहस्यते । मानसिक पीडा होती है, वह नरक प्राप्त कराने वाली निस्पृहत्वं तु सौख्यं तद् बाह्ये मुह्यसिकि मुधा। प्रत्यक्ष ही दृष्टिगोचर हो रही है। हे आत्मन् ! बाह्य पदार्थों से इच्छा या ममत्व हटने निर्जरानुप्रेक्षा से ही परिणामों की विशुद्धि होती है। और पर पदार्था रत्नत्रय प्रकर्षण, बद्धकर्मक्षयोऽपिते । मे इच्छा का हट जाना ही सच्चा सुख है । इमलिए बाह्य अध्मातः कथमप्यग्निा पदार्थों से मोह करना उचित नहीं है। किं वावशेषयेत् ॥ गुप्तेद्रियः क्षणं वा यन्नात्मन्यात्मनमात्मना। प्रज्ज्वलित हुई अग्नि सभी दाह्य वस्तुनो को भस्म भावयन्पश्य तत्सोरव्यमास्तां निःश्रेयसादिकम् ॥ कर देती है किसी को भी नहीं छोडती, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र पूर्व सचित समस्त हे आत्मन् । इन्द्रिय विजयी बनकर आत्मा में प्रात्मा कर्मों को निश्चय ही नष्ट कर देते है। के द्वारा प्रात्मा का ध्याप करने में बह निस्पृहत्व मुख क्षयादनास्त्रवाच्चात्मन, कर्मणामसि केवली। महज ही प्राप्त किया जा सकता है और इसी से मोक्षानिर्गमे चाप्रवेशे च, धाराबन्धे कुतो जलम् ।। दिक भी क्रमश. प्राप्त किये जा सकते है। जैसे किसी जलाशय का पूर्व सचित जल तो निकाल अनन्तं सौख्य मात्मोत्थ मस्तीत्यत्र हि साप्रमा। दिया जावे और नवीन जल उसमे नही पा सके तो वह शान्तस्वातन्तस्य या प्रीतिः स्वसंवेदन गोचरा ।। जल किसी समय निर्जल अवश्य हो जाता है, उसी प्रकार मनुष्य जब कुछ समय के लिए अपने चित्त को वश आत्मा मे जब सविपाक और अविपाक निर्जरा के द्वारा मे करके निराकुल हो जाता है तब उसे उस समय अपने पूर्व संचित कर्मों का नाश और संवर के द्वारा नवीन कर्मो ही अनुभव में आने वाला जो अनुपम प्रानन्द प्राप्त होता का निरोध ही जाता है तब यह भी केवली बन जाता है है, उससे निश्चय ही यह सिद्ध होता है कि प्रात्म मात्र अर्थात् कर्म रहित हो जाता है। की अपेक्षा से प्रगट होने वाला सुख अवश्य ही अनन्त है। रत्नत्रयस्य पूर्तिश्च त्वमान्मन्सुलभव सा। मोह क्षोभ विहीनस्य परिणामो हि निर्मलः ।। ___ लोकानुप्रेक्षा जहाँ तक मोहनीय कर्म का उदय रहता है वही तक प्रसारिता घ्रिणा लोकः कटि निक्षिप्त पाणिना। आत्मा के परिणामो मे मलिनता रहती है किन्तु मोह के तुल्यः पुंसोर्ध्वमध्ययोः विभागस्त्रि मरुववृत्तः॥ नष्ट हो जाने पर वे परिणाम अत्यन्त निर्मल हो जाता है। हे आत्मन् ! यह षड्द्रव्य मय लोक पैरो को फैलाए इसलिए हे आत्मन् ! जब तू मोहनीय कर्म से रहित हो तथा कमर पर हाथ रखे हुए पुरुष के प्राकार का है।
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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