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कविवर वादोभसिंह भूरि भोर उनको बारह भावनाएँ
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प्रशुचित्वानुप्रेक्षा
हे प्रात्मन् ! तेरे मे प्रतिसमय पुछ गलमय कर्मों का मेध्यानामपि वस्तूनां, यत्सम्पर्कादमध्यता ।
प्रागमन हो रहा है। जैसे किसी नौका मे अब छिद्र द्वारा तद् गात्रमशुचीत्येतत् किं नात्मन्मल सम्भवम् ॥
जल पाता है, तब वह क्रमशः नीचे जल मे डूबती जाती जिस शरीर के सम्पर्क से पवित्र वस्तएं भी अपवित्र है, उसी प्रकार तू भी उस कर्मानब के कारण अधोगति हो जाती है तथा जो रज और वीर्य प्रादि मलों से उत्पन्न ।
को प्राप्त होता जा रहा है। होता है वह शरीर पवित्र कैसे हो सकता है ? किन्तु
तन्निदानं तवैवात्मन् ! योगभावो सबा समो।
तो विद्धि सपरिस्पन्दं परिणाममशुभाशुभम् ।। कभी नही। अस्पष्टं दृष्टमन हि सामर्थ्यात्कर्म शिल्पिनः ।
प्रात्मा के साथ अनादि काल से सम्बद्ध योग और रम्यमहे किमन्यत्स्यान्मलमांसास्थिमज्जतः ॥ कषाय ही इस आस्रव के कारण है। इनमे से मन, बचन, नाम कर्म जन्म सौन्दर्य आदि के कारण यद्यपि यह
और काय के निमित्त से होने वाली प्रात्मा के प्रदेशों को शरीर ऊपर से देखने में सुन्दर मालूम होता है परन्तु चंचलता को योग तथा शुभ और अशुभ प्रात्मा के परिवास्तव में इसके भीतर मल, मांस, हसी और चर्बी प्रादि णामों को कषाय कहते है। के सिवाय और कोई अच्छी वस्तु नहीं है।
प्रास्त्रवोऽयममष्येति, ज्ञात्वात्मन्कर्म कारणे। देहादन्तः स्वरूपं चेद् बहिर्वेहस्य किम्परः।
तत्तन्निमित्तवेधुर्यादथ बाह्मोवंगो भव ।। प्रास्तामनुभवेच्छेय मात्मन को नाम पश्यति ।।
हे प्रात्मन् ! अमुक कर्म के आने का अमुक कारण
है, इस प्रकार कर्म और उसके कारणो को जान कर उन्हे यदि किसी प्रकार इस शरीर का भीतरी भाग बाहर
अपने से अलग कर दे, जिससे तुझे शीघ्र ही मोक्ष की दिखने लगे तो इसके भोग की तो बात ही क्या ? मनुष्य
प्राप्ति हो जाए। इस पर नजर डालने में भी घृणा करेगे।
__ संवरानुप्रेक्षा एवं मिशित पिण्डस्य क्षापिणोऽक्षयशंकृतः ।
संरक्ष्य समिति गुप्ति-मनुप्रेक्षापरायणः । गात्रस्मात्मन्क्षयात्पूर्व तत्फलं प्राप्य तत्त्यज ॥
तपः संयम धर्मात्मा, त्वं स्या जित परीषहः ।। यद्यपि मांस के पिण्डरूप यह मनुष्य शरीर नश्वर है,
प्रास्रव अर्थात् आते हुए नवीन कर्मों का रुकना संवर तथापि वह मोक्ष प्राप्ति का कारण है, अर्थात् इससे धर्म को ममिति गप्ति ग्रनप्रेक्षा. ता. धर्म और प साधन कर मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है। प्रतएव है सब के सब इसी सवर के कारण है। प्रतएव हे प्रात्मन् ! आत्मन ! जब तक यह नष्ट नहीं होता है तब तक इससे त उस संवर के निमित्त इन सब का पालन कर । मोक्ष प्राप्ति के साधनों को एकत्रित कर लेना चाहिए। एवं च त्वयि सत्यात्मन् कर्मास्रब निरोधनात् । प्रात्तसारं वपुः कुर्या-स्तथात्मंस्तत्क्षभेऽप्येभीः ।
नीरन्ध्रपोतवद् भूयाः निरपायो भवाम्बुधौ। प्रात्तसारेचदाहेऽपि, नहि शोचन्ति मानवाः ॥
जैसा नौका के भीतर जल आने का छिद्र रुक जाने जैसे मनुष्य ईख से सार के निकाल लेने पर, उसके पर वह जलाशय मे खतरा रहित हो जाती है, उसी जलाने में रज नही करता, उसी प्रकार हे प्रात्मन् ! तेरा प्रकार प्रात्मा मे कर्मों के प्रागमन का द्वार रुक जाने पर भी कर्तव्य है, कि तू भी इस मनुष्य शरीर से मोक्ष के इसे भी ससार सागर मे फंमने का डर नही रहता। साधनो को प्राप्त कर उसे निःसार बना, जिससे इसके विकयादिवियुक्तस्त्वमात्म-भावनपाउन्धिताः । नाश होने मे तुझे रज भी न हो।
त्यक्त बाह्यस्पृहो भूया, गुप्ताद्यास्ते करस्थिताः। प्रास्त्रवानुप्रेक्षा
हे पात्मन् ! तेरा कर्तव्य है कि तू पात्मध्यानी बन मजनमानवन्त्यात्मन् ! दुर्मोचाः कर्म पुद् गलाः। विकथा और कषाय आदि प्रमादो से रहित होकर धन जैः पूर्णस्त्वमषोऽधः स्या, जलपूर्णो यथा लयः॥ मान्यादिक बाह्य पदार्थों से ममता को छोड़ दे। ऐसा