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________________ ६२, वर्ष २६, कि० २ अनेकान्त है-ब्रह्मविद्योपनिषद, ब्रह्म बिदु, योगशिवा, ध्यानबिन्दु, पुराण : तेजबिन्दु, योगतत्त्व, नादबिन्दु और चूलिकोपनिषद् पुराणो मे भागवत मे योग का सुमधुर पद्यो मे वर्णन आदि। कहना चाहिए, ऋग्वेद मे जो अध्यात्म-चिन्तन आता है । अनेक तान्त्रिक ग्रथो मे भी योग विषयक तथ्य अंकुरित था, वही उपनिवदो मे पल्लविन एवं पुष्पित विवरे पडे है। उनमे महानिर्माण तन्त्र षड्चक्र निरूपण होकर शाखा-प्रशाखाग्रो के मान फनावस्था को प्राप्त आदि मुख्य है। यहाँ पर जीप (गमागे अात्मा), प्रात्मा हमा है। उपनिषद् काल में योग-प्रक्रिया कितनी पल्लवित (मक्त अात्मा) और परमात्मा; इन तीनो को अभेद थी, यह स्पष्ट ही है। प्रतिपत्ति को योग बताया है।' महाभारत और गीता : जैमिनी: महाभारत मे भी योग शब्द का प्रयोग अध्यात्म के पूर्व मीमामा मे जैमिनी ने योग का निदेश तक नही अर्थ मे मिलता है । शान्ति पर्व और अनुशासन पर्व मे किया है, वह किसी दृष्टि से ठीक भी है, क्योकि उसमे योग की प्रति प्रक्रिया का समचित वर्णन मिलता है । मकाम कर्मकाण्ड अर्थात् धूममार्ग की ही मीमांसा है। गीता भी महाभारत का ही एक विशेष अग है । वहाँ पर उसकी पहुंच भी स्वर्ग तक ही है, उसका साध्य मोक्ष योग अध्यात्म अर्थ में विपुल मात्रा में अभिव्यजित नहीं है। पर योग का उपयोग तो मोक्ष के लिए ही अवश्य है, पर वह भवित, ज्ञान और कर्म इन तीनो से होता है। मंश्लिष्ट होकर ही। गीता के छठे और तेरहवे अध्याय मे सांख्य परम्परा : तो योग के मौलिक सिद्धान्त और योग की मारी प्रक्रियाए साख्य मूत्र में भी योग-प्रप्रिया पर वर्णन करने वाले या जाती है। कई सूत्र है।" महर्षि वादगयण ने अपने ब्रह्म सूत्र के न्याय: तीसरे अध्याय का नाम ही साधना अध्याय रक्खा है और न्याय, जिसका प्रमग्य विषय है प्रमाण-पद्धति का उसमे ग्रासन. ध्यानादि योगाङ्गों का समुचित विवेचन विश्लेषण करना, उममे भी महर्षि गौतम ने योग को है। 'योगदर्शन' तो मुख्यतया योग विषयक ही ठहरा, महत्त्व दिया है। महर्षि कणाद ने तो अपने वैशेषिक दर्शन उसमे योग-प्रक्रिया का पाया जाना स्वाभाविक ही है। मे यम-नियमादि योगाङ्गों की विशेष महिमा गाई है। इतना ही नही, वह तो सारे यौगिक ग्रन्थों का उत्तर दायित्व बहन करने वाला है। अनेक दार्शनिको ने योग प्राणान् प्रयोऽयेह मयुक्त चेष्ट, पर थोडा मा विवेचन करके विशेष जानकारी के लिए क्षीणे प्राण नामिकयोच्छ्वामीत् । 'योगदर्शन' को देखने की सूचना दी है। महर्षि पतजलि दुष्टाश्व युक्तमिव वाहमेन, द्वारा प्रणीत 'पातजल योगदर्शन' भी सर्वांगीण योग-साधना विद्वान् मनो धारयेताप्रमन ।।६।। का संवाहक सर्वोत्तम ग्रन्थ है। उसका अनुकरण तो प्राय: समे शुचौ शर्करा वह्नि, वालुका विवजिते शब्दजाल श्रयादिभि. । दार्शनिकों ने किया ही है। मनोनुकले न तु चक्षुपीडने, ३. महानिर्माण तंत्र, अ. ३, पृ० ८२ ग्रहानि वातश्रयणे प्रयोजयेत् ॥१०॥ ऐक्य जीवात्मनो राहु. योग योग विशारदाः १. शान्तिपर्व १६३, २१७, २४६, २५४ आदि, अनुशा- शिवात्मनोरभेदेन प्रतिपत्ति परे विदु. । सन पर्व ३४, २४६ । ४. अभिषेचनोपवास ब्रह्मचर्य गुरुकुलवास नाना प्रस्थ २. समाधि विशेषाभ्यासात् ४१२१३८ यज्ञादान प्रेक्षणदिङ् नक्षत्र मन्त्र काल नियमाश्च अरण्य गुहा पुलिनादिषु योगाभ्यासोपदेशः । -४।२।४२ दृष्टयः । ६।२।२। तदर्थ यमनियमाभ्यात्म संस्कारो प्रयतस्य शुचि भोजनाभ्युदयो न विद्यते नियमाभावाद् योगाच्चात्मध्यात्म विध्युपायै । -४।२।४६ विद्यते नार्थान्तराद् वा यमस्य ।
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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