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भारतीय दर्शन में योग
था।
बौर परम्परा
विकसित थी, यह निश्चित रूप से माना जा सकता है । बौद्ध परम्परा मे योग के अर्थ मे ध्यान शब्द का जैन दर्शन मे योग शब्द को एक सकीर्ण परिभाषा मे न प्रयोग प्राता है । जैन परम्परा की तरह बौद्ध परम्परा मे बाधकर उसे विशाल अर्थ प्रदान किया है । महर्षि पतजलि भी चार प्रकार के ध्यानो का वर्णन मिलता है, जिनका की तरह उसे न केवल निरोधात्मक ही माना है और न विश्लेषण हम पागे करेंगे । 'बिशुद्धि मग्ग' मे तीन तरह अरविद की तरह विधेयात्मक ही; प्रत्युत दोनों को एक की समाधियो का उल्लेख मिलता है। 'विशुद्धि मग्ग' साथ तोला है। जो भी प्रवृत्ति या निवृत्ति मोक्ष के और 'अभिधम्म कोष', ये दोनों तो मुख्यत ध्यान विषयक अभिमुख ले जाये, उसी प्रवृत्ति एव निवृत्ति का नाम योग ही है। भगवान् महावीर की तरह भगवान् बुद्ध ने भी है। प्रवृत्ति का सूचक शब्द निर्जरा एव निवृत्ति का सूचक बोधि-प्राप्ति के पूर्व ६ वर्ष तक योगाभ्यास किया था। शब्द सवर है। सवर योग और निर्जरा योग, ये दोनों उनके सहस्रों शिष्यों ने भी वही पथ अपनाया था। ध्यान जैन दर्शन के हार्द है । सामान्यतया योग शब्द का फलिसंप्रदाय बौद्ध धर्म की ही एक शाखा है। उपर्युक्त इन ताथ अध्यात्म-विकास हा है। अध्यात्म-विकाम ने जितना सभी तथ्यो से यही निष्कर्ष निकलता है कि बौद्ध परम्परा
जैन दर्शन मे बिकास पाया है, उतना अन्य दर्शनो मे मे भी योग-विद्या विकसित एव पल्लवित थी।
नही । यह पूर्ववर्ती साहित्य का समुल्लेख हुआ। जैन परम्परा:
१. हरिभद्र: जैन परम्परा के पूर्ववर्ती साहित्य मे योग के अर्थ में मध्ययुग मे श्री हरिभद्र सूरि ने तत्कालीन परिस्थितप और सवर शब्द का जितना उपयोग हमा है उतना तियो का अध्ययन करके तथा लोक रुचि के अनुसार योग योग शब्द का नहीं हुआ है। तप के अनशन प्रादि बारह
शब्द की नवीन परिभापा कर योग माहित्य में एक नया भेदों का एव संवर के सम्यक्त्व आदि पाच भेदो का वर्णन अध्याय जोड दिया था। सुव्यवस्थित योग साहित्य की अनेक स्थानो पर मिलता है। वर्णन ही नहीं, बल्कि
जैन परम्परा में जो कमी थी, उसे उन्होंने अपनी बौद्धिक इसका विकास तत्कालीन मुनियो में साक्षात् मूर्तिमान् प्रतिभा से सम्पन्न किया। योगबिन्दु, योगदृष्टि समुच्चय, था। भगवान महावीर की बारह वर्ष की कठोरतम साधना योगविशिका, योगशतक और पोडशक, ये योगप्रक्रिया इसी योगाभ्यास की ज्वलन्त प्रतीक थी। अनेक स्थलो
Ghथी। सोन स्थलों का समस्त व्यौरा देने वाली उनकी अनुपम कृतियाँ है। पर पाता है कि भगवान् महावीर अमुक आसन लिए उनकी प्रतिभा ने केवल जैन योग का वर्णन करके ही हए ध्यान में रत थे। 'तीर्थकर महावीर' पुस्तक में इसी प्रात्मतोष नही माना, प्रत्युत ‘पातंजल योग दर्शन' मे विषय को पुष्ट करते हुए लिखा है-'सानुलट्रिय से भग- प्रतिपादित योग-प्रक्रिया के साथ जैन सकेतो का समन्वय वान ने दृढभूमि की ओर विहार किया और पेढाल गाव भी प्रस्तुत किया है । 'योग दृष्टि समुच्चय' में जिन आठ मे स्थित पेढाल नामक उद्यान मे पोलास नाम के चैत्य में दृष्टियो का वर्णन है, वह सारे योग साहित्य में एक नया जाकर अष्टम तप करके एक भी जीव की विराधना न आलोक है। इनका सविस्तर वर्णन अग्रिम प्रकरणो में हो, इस प्रकार एक शिला पर शरीर को कुछ झकाकर किया जा सकेगा। हाथ लम्बे करके किसी रूक्ष पदार्थ पर दृष्टि स्थिर करके २. हेमचन्द्र : दढ़ मनस्क होकर अनिमेष दृष्टि से भगवान् वहाँ एक हेमचन्द्र सूरि द्वारा रचित 'योगशास्त्र' भी एक रात्रि ध्यान में स्थिर रहे। यह महाप्रतिमा तप कह- अनठा ग्रन्थ है । उसमे पातंजल योगदर्शन मे प्रतिपादित लाता है।'
आठ योगाङ्गो के क्रम से साधु और गृहस्थ जीवन की योग शब्द इस अर्थ मे पागभानुमोदित भले ही न हो,
आचार-प्रक्रिया का जैन सिद्धान्तानुसार सुन्दरतम वर्णन पर योग-प्रक्रिया उस समय भी नितान्त पल्लवित एवं
है। उसमे प्रासन, प्राणायाम, धारणा और ध्यान प्रभृति १. तीर्थकर महावीर, पृ० २२१
के स्वरूपों का वर्णन एवं उनकी महिमा भी बतलाई गई