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६४, वर्ष २६, कि० २
है। इससे यह फलित होता है कि हेमचन्द्र ने राजयोग की तरह हठयोग को भी महत्त्व दिया था । ३. यशोविजय :
अनेकान्त
यशोविजयजी द्वारा रचित योगग्रन्थ भी जैन साहित्य की अनुपम निधियों है । उनका शास्त्राध्ययन, तर्क- कौशल और योगानुभूति अत्यन्त गम्भीर थी। उन्होंने अध्यात्मसार, अध्यात्मोपनिषद्, सटीक बत्तीस बत्तीसियाँ लिखकर योग साहित्य में मानो एक प्रकार की बाढ-सी ला दी । उन्होने जैन सिद्धान्तो की सूक्ष्म मीमासा के साथ अन्य दर्शनों का समन्वय भी किया है। इसके अतिरिक्त उन्होने हरिभद्रसूरि कृत 'योगविशिका' तथा पोडशक ग्रंथो पर टीका लिखकर गूढ तत्त्वों का उद्घाटन भी किया था। उन्होने महर्षि पतजलि कृत योग सूत्र पर भी एक लघुवृत्ति लिखी तथा उसमे जैन परम्परा एव साख्य परम्परा का यथासम्भव समन्वय भी किया है। तटस्थता की झलक उनके प्रत्येक ग्रंथ में रही है । ४. दिगम्बर परम्परा :
रचयिता का परिचय अब तक सुलभ नही हुआ है। योगतारावली, योगवीज और योग कल्पद्रुम आदि ग्रंथ भी महत्त्वपूर्ण है । विक्रम की सत्रहवी शताब्दी मे भवदेव द्वारा रचित 'योग निबन्ध' नामक हस्तलिखित ग्रन्थ भी देखने में पाया है जिसमें विष्णु पुराणादि प्रत्थों के उद्ध रण देकर योग सम्बन्धी प्रत्येक विषय पर विस्तृत विवेचन किया है।
अन्य भाषाओं में :
महाराष्ट्री भाषा मे ज्ञानदेवी द्वारा विरचित गीता की ज्ञानेश्वरी टीका भी दर्शनीय है। इसके छठे अध्याय का वर्णन अत्यन्त सुन्दर एव मनोहर है। निश्चित ही ज्ञानदेवी ने ज्ञानेश्वरी टीका द्वारा अपने अनुभव एव वाणी को अबध्य बनाया है । 'सिद्धान्त सहिता' भी योग विषयक दर्शनीय ग्रन्थ है। कबीर का 'बीजक ग्रन्थ' भी योग साहित्य का एक अंग है । हिन्दी, गुजराती, मराठी, बंगाली आदि विविध भाषाओ मे पातजल योग शास्त्र का अनुवाद तथा विवेचन मिलता है। विभिन्न भाषाओ मे पानजल योग शास्त्र का अनुवाद योग साहित्य के गौरव को और भी बढ़ा देता है । भारतीय साहित्य मे योग साहित्य भी अपना अनूठा स्थान रखता है, यह अब कोई उलझा हुआ विषय नही रह गया है। ⭑
धर्म
दिगम्बर साहित्य मे ज्ञानार्णव तो प्रसिद्धतम ग्रथ है ही, ध्यानमार और योग प्रदीप ये दोनो भी कम महत्त्व के नही है । वे पद्यात्मक एव लघु परिमाण है । 'योगसार' नामक ग्रथ भी इस विषय मे महत्त्वपूर्ण है । पर इसके लका में जैन
लंका देश में जिस समय बौद्ध भिक्षु गये, उस समय जैन धर्म लंका देश में फैला हुआ था व जैन साधु बड़ी संख्या में विचरण करते थे। हिन्दी साप्ताहिक पत्र "चौराहा" में "जैन और बौद्ध परम्पराओं का मिलन बिन्दु' शीर्षक निम्नलिखित लेख में यह जानकारी प्रकाशित हुई है।
यहाँ बौद्ध साहित्य के गौरव को बढ़ाने वाली एक बात को भी बताना अनुचित न होगा, जिसने जैन धर्म के एक ऐसे गौरवमय साक्ष्य की ओर संकेत किया है जिसका पता स्वयं जैन धर्म को भी नहीं है। प्रशोक के पुत्र श्रौर पुत्री, महेन्द्र और संघमित्रा, जब लका में धर्म प्रचारावं गये तो वहां उन्होंने अपने से पूर्व स्थापित निर्णय संघको देखा । लंका के प्राचीन नगर अनुराधापुर की (जो आज खण्डहर के रूप में पड़ा है) जब स्थापना की गई तो वहाँ महावंश के कथनानुसार तत्कालीन राजा ने निर्ग्रन्थों के लिए भी श्राश्रम बनाए। इतना ही नहीं, पालि ग्रन्थों का साक्ष्य है कि लंका में वौद्ध धर्म की स्थापना होने के बाद भी ४४ ईसवी पूर्व तक निर्ग्रन्थों के श्राश्रम लंका में विद्य मान थे, जिसे ऐतिहासिक तथ्य के रूप में पालि डिक्शनरी ग्राफ प्रापर नेम्स के सम्पादक प्रसिद्ध सिंहली बौद्ध विद्वान् मललसकर ने भी स्वीकार किया है। जैन विद्वानों को अपने प्राचीन विदेशी प्रचार कार्य की खोज करनी चाहिए ।
जैन दर्शन साधना का केन्द्रीय विचार है, वस्तुतः वीतरागता । सम्पूर्ण वीतरागता जंन-दर्शन का लक्ष्य है। हिंसा श्रौर श्रनेकान्त उसके दाएँ-बाएँ स्थित है। यह त्रिविध साधना मानवता के तेज को निखारने वाली है । 'माणुसतं भवे मूर्त' मनुष्यता ही मूल वस्तु है, यह जो कहा गया है, यही वस्तुतः जंन दर्शन की प्रकृत स्थिति है, उसका श्रात्मवाद नहीं । और यहीं पर बौद्ध दर्शन और जैन दर्शन दोनों मिलते हैं। दोनों का लक्ष्य मानव है, वह मानव जो पूर्ण विमुक्त है, केवली है, महंत है । - महेन्द्रकुमार जैन दिल्ली