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________________ जन तत्वज्ञान इन दो पदार्थों से बनता हो फिर भी इस कार्म के पीछे की तरह परिणामिनित्य है। जैनदर्शन ईश्वर जैमी किसी किसी अनादिसिद्ध, समर्थ चेतनशक्ति का हाथ है, इस व्यक्ति को बिलकुल स्वतन्त्ररूप से नही मानता फिर भी ईश्वरीय हाथ के सिवाय एसे अद्भुत कार्म का सम्भव वह ईश्वर के समग्र गुणो को जीवमात्र में स्वीकार करता नही हो सकता है। जैनदर्शन इस प्रकार से नही मानता है। इसलिए जैनदर्शनानुमार प्रत्येक जीव में ईश्वरत्व की है। वह प्राचीन साख्य, पूर्वमीमासा और बौद्ध आदि की शक्ति है। चाहे वह शक्ति प्रावरण से दबी हुई हो, तन्ह मानता है कि जड और चेतन ये दो सत् प्रवाह परन्तु जीव योग्य दिशा में प्रयत्न करे तो वह अपने मे धपने पाप किसी तृतीय विशिष्ट शक्ति के हस्तक्षेप के रही हुई ईश्वरीय शक्ति का पूर्णरूप से विकाम करके सिवाय ही चलते रहते है। इमलिए वह इस जगत् की स्वयं ही ईश्वर बनाता है। इस प्रकार जैन मान्यतानुभार उत्पत्ति या व्यवस्था के लिए ईश्वर जैसी स्वतन्त्र अनादि- ईश्वर तत्त्व को भिन्न स्थान नहीं होने परीवर मिद्ध व्यक्ति स्वीकार नहीं करता है। यद्यपि जैनदर्शन तत्त्व की मान्यता रखता है और उसकी उपासना भी न्याय, वैशेषिक, बौद्ध प्रादि की तरह जड सत् तत्व को स्वीकार करता है। जो जो जीवात्माये कनवागनानी से अनादि सिद्ध अनन्त व्यक्तिम्प स्वीकार करता है और पूर्णरूप से मुक्त हुई है वे सभी ममान भाव में ईश्वर है। साग्य की तरह एक व्यक्तिरूप नही स्वीकार करता, फिर उनका श्रादर्श सामने रख करके अपने में रही हई पर्णभी वह माख्य के प्रकृतिगामी सहज परिणामवाद को शक्ति को प्रकट करना यह जैन उपासना का ध्येय है। अनन्त परमाणु नामक जड सत् तत्त्वो मे स्थान देता है। जिस प्रकार गाकर वेदान्त मानता है कि जीव म्वय ही . ब्रह्म है है, उसी प्रकार जनदर्शन कहता है कि जीव स्वय इस प्रकार जैन मान्यता के अनुसार जगत् का परि- श्र वर्तन प्रवाह अपने आप ही चलता रहता है। फिर भी ईश्वर या परमात्मा है। वेदान्त दर्शनानुसार जीव का जैनदर्शन इतना तो स्पष्ट कहता है कि विश्व की जो-जो ब्रह्मभाव अविद्या से प्रावृत है और अविद्या के दूर होते घटनाये किसी की बद्धि और प्रयत्न की प्राभारी होती है ही वह अनुभव मे पाता है। उसी प्रकार जनदर्शनानुसार उन घटनायो के पीछे ईश्वर का नही परन्तु उन घटनायो जीव का परमात्मभाव कर्म से श्रावृत है उस प्रावरण के के परिणाम में भागीदार होने वाले ससारी जीव का हाथ दूर होते ही वह पूर्णरूप से अनुभव में पाता है। इस सम्बन्ध में वस्तुत: जैन और वेदान्त के बीच मे व्यक्तिरहता है अर्थात् वैमी घटनायें जानमे या अनजान में किसी न किसी ससारी जीव की बुद्धि और प्रयत्न की प्राभारी __ बहुत्व के सिवाय कुछ भी भेद नहीं। होती है । इस सम्बन्ध मे प्राचीन साख्य और बौद्ध दर्शन (ख) जैनशास्त्र में जिन सात तत्त्वो का उल्लेख है जैनदर्शन जैसे ही विचार रखने है। उनमे से मूल जीव और अजीव इन दो तत्त्वो की ऊपर न को तुलना की है। अब वस्तुत. पांच में से चार ही तत्त्व या अखण्ड नहीं मानता है; परन्तु साख्य, योग, न्याय, अवशिष्ट रहते हैं। ये चार तत्त्व जीवनशोधन से सम्बन्ध वैगेपिक तथा बौद्ध प्रादि की तरह वह सचेतन तत्त्व को रखन वाल अथा। आध्यात्मिक विकामक्रम में सम्बन्ध अनेक व्यक्तिरूप मानता है। फिर भी इन दर्शनो के साथ रखने वाले है, जिनको चारित्रीय तत्त्व भी कह सकते है। जैनदर्शन का थोड़ा मतभेद है और वह यह है कि जैन- बध, प्रास्रव, सवर और मोक्ष ये चार तत्त्व है। ये तत्त्व दर्शन की मान्यतानुसार सचेतन तत्त्व बौद्ध मान्यता की बौद्धशास्त्रों में क्रमश. दुख, दुखहेत, निर्वाणमार्ग और तरह केवल परिवर्तन प्रवाह नही है तथा साख्य, न्याय निर्वाण इन चार आयसत्यों के नाम से वणित है। मान आदि की तरह केवल कूटस्थ भी नहीं है। किन्तु जैन- और योगशास्त्र मे इनको ही हेय, हेयहेत, हीनोपाय और दर्शन कहता है कि मूल मे सचेतन तत्त्व ध्रुव तथा अनादि हान कह करके इनका चतुर्व्यहरूप से वर्णन है। न्याय और अनंत होने पर भी वह देश काल की धारण किये बिना वैशेषिक दर्शन में भी इसी वस्तु का ससार, मिथ्याज्ञान नही रह सकता। इसलिए जैन मतानुसार जीव भी जड़ तत्त्वज्ञान और अपवर्ग के नाम से वर्णन है। वेदान्तदर्शन
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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