SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 195
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७२, वर्ष २६, कि० ४-५ अनेकान्त पाहा विस्तार हो; पर प्रत्येक का उत्तर यह है कि अविद्या और होने पर भी उसमे अन्तर से निवृत्ति का तत्त्व होता है। तृप्णा ये दुख के कारण है । इनका नाश संभव है। विद्यारो दूसरी भूमिका के कितने ही सोपानो का अतिक्रमण करने और तृष्णाछेद के द्वारा दु ख के कारणो का नाश होते ही के बाद प्रात्मा परमात्मा की दशा को प्राप्त होता है । दुख अपने पाप नष्ट हो जाता है और यही जीवनका यह जीवनशोधन की अन्तिम पोर पूर्ण भूमिका है। जैनमुख्य नाध्य है। पार्यदर्शनो की प्रत्येक परम्परा जीवन- दर्शन कहता है कि इस भूमिका पर पहुंचने के बाद शोधन के मौलिक विचार के विषय मे और उनके नियमों पुनर्जन्म का चक्र सदा के लिए बिलकुल बन्द हो जाता है। के विषय में बिलकुल एकमत है। इसलिये यहां जनदर्शन हम कार के सक्षिप्त वर्णन में यह देख सकते है कि के विषय मे कुछ भी कहते समय मुख्यरूप से उसको अविवेक (मिथ्यादृष्टि) और मोह (तृष्णा) ये दो ही जीवनशोधन की मीमासा का ही संक्षेप मे कथन करना समार है अथवा ससार के कारण है। इसके विपरीत अधिक प्रासगिक है। विवेक (सम्यग्दर्शन) और बीतगगत्व यही मोक्ष है । यही जीवन-शोधन की जन प्रक्रिया जीवनशोधन की मक्षिप्स जैनमीमामा अनेक जैन ग्रन्थों मे, जैनदर्शन कहता है कि ग्रात्मा स्वाभाविक रीति से अनेक रीति से, मक्षेप या विस्तार मे, विभिन्न परिभाषाओं काद्ध और सच्चिदानन्दरूप है । इसमे जो अशुद्धि, विकार मे वणित है और यही जीवनमीमासा वैदिक तथा बौद्ध या दुःखरूपता दृष्टिगोचर होती है वह अज्ञान और मोहके दर्शनो मे जगह-जगह अक्षरशः दष्टिगोचर होती है। अनादि कारण से है । अज्ञान को कम करने और बिल्कुल कुछ विशेष तुलना नष्ट करने के लिये तथा मोहके विलय करने के लिये जैन ऊपर तत्वज्ञान की मौलिक जैन विचारसरणी और दर्शन एक अोर विवेक शक्ति को विकसित करने के लिये प्राध्यात्मिक विकासक्रम की जैन विचारसरणी का बहुत कहता है और दूसरी ओर वह रागद्वेष के संस्कारों को नष्ट ही सक्षेप में निर्देश किया है। इस सक्षिप्त लेख मे उसके करने के लिये कहता है। जैनदर्शन प्रात्मा को तीन भूमि- अति विस्तार को स्थान नही, फिर भी इसी विचार को कानों में विभाजित करता है। जब अज्ञान और मोह के अधिक स्पष्ट करने के लिए यहाँ भारतीय दूसरे दर्शनों के प्रबल प्रावल्य के कारण प्रात्मा वास्तविक तत्त्वका विचार विचारो के साथ तुलना करना योग्य है। नहीं कर सके तथा सत्य और स्थायी सुख की दिशा में (क) जैनदर्शन जगत् को मायावादी की तरह केवल एक भी कदम उठाने की इच्छा नहीं कर सके तब वह भास या केवल काल्पनिक नहीं मानता है। परन्तु वह बहिरात्मा कहलाता है। यह जीवको प्रथम भूमिका हुई। जगत् को सत्य मानता है। फिर भी जैनदर्शन सम्मत सत् यह भमिका जब तक चलती रहती है तब तक पुनजन्म के चाबक की तरह केवल जड़ अर्थात सहज चैतन्य रहित चक्र के बंध होने की कोई संभावना नहीं तथा लौकिक नही है। इसी प्रकार जैनदर्शन सम्मत मत् तत्त्व शाकरदृष्टि में चाहे जितना विकास दिखाई देता हो फिर भी वेदान्तानुसार केवल चैतन्य मात्र भी नही है, परन्तु जिस भारतविक रीति से वह आत्मा अविकसित ही होता है। प्रकार साख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, पूर्वमीमासा और जब विवेकशक्ति का प्रादुर्भाव होता है और जब राग- बौद्धदर्शन सत् तत्त्व को बिलकुल स्वतन्त्र तथा परम्पर देप के मस्कारो का बल कम होने लगता है तब दूसरी भिन्न ऐसे जड और चेतन दो भागो में विभाजित कर भूमिका प्रारम्भ होती है। इसको जैनदर्शन अन्तरात्मा डालते है, उसी प्रकार जैनदर्शन भी सत् तत्त्व की कहता है । यद्यपि इस भूमिका के समय देहधारण के लिए अनादिसिद्ध जड़ तथा चेतन ऐसी दो प्रकृति स्वीकार उपयोगी सभी सासारिक प्रवृत्ति अल्प या अधिक अंश में करता है जो कि देश और काल के प्रवाह मे साथ रहने चलती रहती है, फिर भी विवेक शक्ति के विकास के पर भी मूल में बिलकुल स्वतन्त्र हैं। जिस प्रकार न्याय. प्रमाण में और रागद्वेष की मन्दता के प्रमाण में यह प्रवृत्ति वैशेषिक ओर योगदर्शन प्रादि यह स्वीकार करते है कि मनासक्तिवाली होती है। इस दूसरी भूमिका में प्रवृत्ति इस जगत् का विशिष्ट कार्यस्वरूप चाहे जड़ और चेतन
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy