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________________ जैन तत्त्वज्ञान १७१ मन्तव्य भी रखनेवाले है। इन सभी फिरकों के बीच में है और जीवनशोधन की प्रक्रिया दिखला करके विश्रान्ति विशेषता यह है जब वैदिक और बौद्धमत के सभी फिरके लेता है। इसलिये हम प्रत्येक प्रायं दर्शन के मूल ग्रन्थ में आचार विषयक मतभेद के अतिरिक्त तत्त्वचिन्तनकी दृष्टि प्रारम्भ मे मोक्षका उद्देश और अन्त मे उसका ही उपसंहार से भी कुछ मतभेद रखते है तब जनमत के तमाम फिरके देखते है। इसी कारण से सांख्य जिस प्रकार अपना केवल प्राचार भेद के ऊपर अवलम्बित है। उनमे तत्त्व- विशिष्ट योग रखता और वह योगदर्शन से अभिन्न है। चिन्तनकी दष्टि से कोई मौलिक भेद हो तो वह अभी इसी प्रकार न्याय-वैशेषिक और वेदान्त दर्शन मे भी योग तक अंकित नही है। मानवीय तत्त्वचितन का प्रवाह के मूल सिद्धान्त हैं। बौद्ध दर्शन में भी उसकी विशिष्ट मौलिक रूप से अखण्डित ही रहा हो। योगप्रक्रिया ने खास स्थान रोक रखा है। इसी प्रकार जैन पूर्वीय और पश्चिमीय तत्त्वज्ञान की प्रकृति की तुलना दर्शन भी योगप्रक्रिया के विषय में पूरे विचार रखता है। तत्त्वज्ञान पूर्वीय हो या पश्चिमीय हो परन्तु सभी जीवनशोधन के मौलिक प्रश्नों को एकता तत्त्वज्ञान के इतिहास में हम देखते है कि तत्त्वज्ञान केवल इस प्रकार हमने देखा कि जनदर्शन के मुख्य दो भाग जगत्, जीव और ईश्वर के स्वरूप-चितन मे ही पूर्ण नहीं है। एक तत्त्वचितन का और दूसरा जीवनशोधन का। होता; परन्तु वह अपने प्रदेश में चारित्र का प्रश्न भी हाथ यहाँ एक बात खास प्रद्भित करने योग्य है और वह यह मे लेता है । अल्प या अधिक प्रश मे, एक या दूसरी रीति है कि वैदिकदर्शन की कोई भी परम्परा लो या बौद्ध दर्शन से, प्रत्येक तत्त्वज्ञान अपने मे जीवन-शोधन की मीमामा की कोई परम्परा लो और उसकी जैनदर्शन की परम्पराके का समावेश करता है। अलबत्ता, पूर्वीय और पश्चिमीय साथ तुलना करो तो एक तो एक वस्तु स्पष्ट प्रतीत होगी तत्त्व-ज्ञान के विकास मे हम थोड़ी भिन्नता भी देखते है। कि इन सब परम्पराओं में जो भेद है वह दो बातों में है ग्रीक तत्त्वचिन्तन की शुरूवात केवल विश्व के स्वरूप एक तों जगत, जीव और ईश्वर के स्वरूप-चिंतन के सम्बन्धी प्रश्नो मे से होती है और आगे जाने पर क्रिश्चि- सम्बन्ध मे और दूसरा प्राचार के स्थूल तथा बाह्य बिधियानिटी के साथ में इसका सम्बन्ध होने पर इसमे जीवन विधान और स्थूल रहन-सहन के सम्बन्ध में । परन्तु प्रार्यशोधन का भी प्रश्न समाविष्ट होता है। और पीछे इस दर्शन की प्रत्येक परम्परा में जीवनशोधन से सम्बन्ध रखने पश्चिमीय तत्त्वचितन की एक शाखा में जीवन शोधन की वाले मौलिक प्रश्न और उनके उत्तरों में बिलकुल भी भेद मीमासा महत्त्वपूर्ण भाग लेती है । अर्वाचीन समय तक भी नही है । कोई ईश्वर को माने या नही, कोई प्रकृतिवादी रोमन केथोलिक मप्रदाय में हम तत्त्वचितन को जीवन- हो या परमाणवादी, कोई प्रात्मभेद स्वीकार करे या शोधन के विचार के साथ सकलित देखते है। परन्तु आर्य आत्माका एकत्व स्वीकार करे, कोई प्रात्मा को व्यापक तत्त्वज्ञान के इतिहास मे हम एक खास विशेषता देखते और नित्य माने या कोई उससे विपरीत माने, इसी प्रकार है, और वह यह कि मानो पार्य तत्त्वज्ञान का प्रारम्भ ही कोई यज्ञयाग द्वारा भक्ति के ऊपर भार देता हो, या कोई जीवनशोधन के प्रश्न मे से हुआ हो ऐसा प्रतीत होता है। ब्रह्मसाक्षात्कर के ऊपर भार देता हो, कोई मध्यममार्ग क्योकि आर्य तत्त्वज्ञान की वैदिक, बौद्ध और जैन इन तीन स्वीकार करके अनगारधर्म और भिक्षाजीवन के ऊपर भार मख्य शाखाओं मे एक समान रीति से विश्वचिंतन के साथ दे; या कोई अधिक कठोर नियमो का अवलम्बन करके ही जीवनशोघन का चिंतन संकलित है। पावित्तं का त्याग के ऊपर भार दे; परन्तु प्रत्येक परम्परा में इतने कोई भी दर्शन ऐसा नहीं है कि जो केवल विश्वचिन्तन प्रश्न एक समान है-दुख है या नही ? यदि है तो करके सतोष धारण करता हो । परन्तु उसमे विपरीत हम उसका कारण क्या है ? उस कारण का नाश शक्य है ? यह देखते है कि प्रत्येक मुख्य या उसका शाखारूप दर्शन यदि शक्य है तो वह किस प्रकार? अंतिम साध्य जगत्, जीव और ईश्वर सम्बन्धी अपने विष्टि विचार क्या होना चाहिए ? इन प्रश्नों के उत्तर प्रत्येक दिखला करके अन्त में जीवनशोधन के प्रश्न को ही लेता परम्परा मे एक ही है। चाहे शब्द-भेद हो, संक्षेप या
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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