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१७४, वर्ष २६, कि०४-५
अनेकान्त
में संसार, अविद्या, ब्रह्मभावना और ब्रह्मसाक्षात्कार के काशी जाकर गङ्गा स्नान और विश्वनाथ के दर्शन में नाम से यही वस्तु दिखलाई गई है।
पवित्रता माने, कोई बुद्ध गया और सारनाथ जाकर कृतजैनदर्शन मे बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा कृत्यता माने, कोई शत्रुजय की यात्रा में सफलता माने, की तीन सक्षिप्त भूमिकामो का कुछ विस्तार से चौदह कोई मक्का और कोई जेरुसलेम जाकर धन्यता माने । भूमिकाओं के रूप से भी वर्णन किया गया है, जो जैन- इसी प्रकार कोई एकादशी के तप और उपवास को पवित्र परम्परा में गुणस्थान के नाम से प्रसिद्ध है। योगवाशिष्ट गिने, दूसरा कोई अष्टमी और चतुर्दशी के व्रत को महत्त्व जैसे वेदान्त के ग्रन्थो मे भी सात अज्ञान की और सात को प्रदान करे, कोई तप के ऊपर बहुत भार नहीं देकर ज्ञान की चौदह आत्मिक भूमिकामो का वर्णन है। साख्य- के दान के ऊपर भार दे, दूसरा कोई तप के ऊपर भी योगदर्शन की क्षिप्त, मूढ, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध ये बहुत भार दे, इस प्रकार परम्परागत भिन्न-भिन्न संस्कारों पाँच चित्तभूमिकाये भी इन्ही चौदह भूमिकाओं का संक्षिप्त का पोषण पोर रुचिमेद का मानसिक वातावरण अनिवार्य वर्गीकरण मात्र है। बौद्धदर्शन में भी इसी प्राध्यात्मिक होने से बाह्याचार और प्रवृत्ति का भेद कभी मिटने वाला विकासक्रम को पथग्जन, सोतापन्न आदि रूप से पांच नहीं है । भेद की उत्पादक और पोषक इतनी अधिक भूमिकाओं में विभाजित करके वर्णन किया गया है। इस वस्तुयें होने पर भी सत्य ऐसा है कि वह वस्तुतः खण्डित प्रकार जब हम सभी भारतीय दर्शनों मे ससार से मोक्ष नही होता है। इसीलिए हम ऊपर की प्राध्यात्मिक तक की स्थिति, उसके क्रम और उसके कारणों के विषय विकासक्रम से सम्बन्ध रखने वाली तुलना मे देखते है कि में एक मत और एक विचार पढते है तब प्रश्न होता है चाहे जिस रीति से, चाहे जिस भाषा मे और चाहे जिस कि जब सभी दर्शनो के विचारो मे मौलिक एकता है तब रूप में जीवन का सत्य एक समान ही सभी अनुभवी पंथ-पंथ के बीच मे कभी भी मेल नहीं हो ऐना और इतना तत्त्वज्ञों के अनुभव मे प्रकट हुआ है। अधिक भेद क्यो दिखाई देता है ?
प्रस्तुत वक्तव्य को पूर्ण करने के पहले जैनदर्शन की इसका उत्तर स्पष्ट है। पंथ की भिन्नता मे मुख्य दो सर्वमान्य दो विशेषताओं का उल्लेख करना उचित है। वस्तुयें कारण है। तत्वज्ञान की भिन्नता और बाह्य आचार- अनेकान्त और अहिसा इन दो मुद्दो की चर्चा पर ही बिचार की भिन्नता। कितने ही पंथ तो ऐसे भी है कि सम्पूर्ण जनसाहित्यका निर्माण है। जैन आचार और जिनके बाह्य आचार-विचार में भिन्नता होने के अतिरिक्त सम्प्रदाय की विशेषता इन दो विषयो से ही बतलाई जा तत्त्वज्ञान की विचारसारणी में भी अमुक भेद होता है। सकती है। सत्य वस्तुत एक ही होता है; परन्तु मनुष्य की जैसे कि वेदान्त, बौद्ध और जैन आदि पंथ । कितने ही दृष्टि उसको एक रूप से ग्रहण नहीं कर सकती है। पंथ या उनकी शाखायें ऐसी भी होती है कि जिनकी इसलिये सत्यदर्शन के लिये मनुष्य को अपनी दृष्टिमर्यादा तत्त्वज्ञान विषयक विचारसारणी मे खास भेद नहीं होता विकसित करनी चाहिये और उसमे सत्यग्रहण की संभावित है । उसका भेद मुख्यरूप से बाह्य प्राचार का अवलम्बन सभी दृष्टियों को स्थान होना चाहिए। इस उदात्त और लेकर उपस्थित और पोषित होता है। उदाहरण के तौर विशाल भावना में से अनेकान्त विचारसरणीका जन्म हुआ पर जैनदर्शन की श्वेताम्बर, दिगम्बर और स्थानकवासी हे। इस विचार सरणी की योजना किसी वाद-विवाद में इन तीन शाखाओं को गिना सकते है ।
जय प्राप्त करने के लिये या वितण्डावाद की साठमारीआत्मा को कोई एक माने या अनेक माने, कोई चक्रव्यूह या दावपेच खेलने के लिये या शब्दछलकी शतरंज ईश्वर को माने या कोई नहीं माने-इत्यादि तात्त्विक खेलने के लिये नहीं हुई है। परन्तु इसकी योजना तो विचारणा का भेद बुद्धि के तरतम भाव के ऊपर निर्भर जीवनशोधन के एक भाग स्वरूप विवेकशक्ति को विकसित है। इसी प्रकार बाह्य प्राचार और नियमों के भेद बुद्धि, करने के लिये और सत्यदर्शन की दिशा में आगे बढ़ने के रुचि तथा परिस्थिति के भेद मे से उत्पन्न होते हैं। कोई लिये हई है। इसलिये अनेकान्त विचारसरणीका सच्चा