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जैन तत्त्वज्ञान
१७५ अर्थ यह है कि सत्यदर्शन को लक्ष्य में रख करके उसके आध्यात्मिक नाम प्रदान करो, परन्तु वह घस्तुतः अहिसा सभी अंशों और भागों को विशाल मानस वर्तुल मे योग्य ही है। और जैनदर्शन यह कहता है कि अहिसा केवल रीति से स्थान देना।
आचार नहीं है; परन्तु वह शुद्ध विचार के परिपाक रूपसे जैसे-जैसे मनुष्य की विवेकशक्ति बढ़ती है वैसे-वैसे अवतरित जीवनोत्कर्ष का आचार है। उसकी दृष्टिमर्यादा बढ़ने के कारण उसको अपने भीतर ऊपर वर्णन किये गये अहिमा के सूक्ष्म और वास्तविक रही हुई संकुचितताप्रो और वासनाओं के दबावो के रूप मे से कोई भी बाह्याचार उत्पन्न हुआ हो अथवा इस सामने होना पड़ता है जब तक मनुष्य सकुचिततायो और सूक्ष्म रूप की पुष्टि के लिये किसी आचारक निर्माण हा वासनाप्रो के साथ विग्रह नही करता तब तक वह अपने हो तो उसका जैन तत्त्वज्ञान मे अहिसा के रूप में स्थान जीवन में अनेकान्त को वास्तविक स्थान तही दे सकता है। है। इसके विपरीत, ऊपर-ऊपर से दिखाई देने वाले अहिइसलिये अनेकान्त विचार की रक्षा और वृद्धि के प्रश्न मे सामय चाहे जिस आचार या व्यवहार के मूल मे यदि से ही अहिसा का प्रश्न आता है। जैन अहिसा केवल ऊपर कळ अहिसा तत्वका सम्वन
ऊपर कुछ अहिसा तत्त्वका सम्वन्ध नही हो तो वह प्राचार चुपचाप बैठे रहने मे, या उद्योग-धंधा छोड़ देने में अथवा । और वह ब्यवहार जैन दृष्टि से अहिंसा है या अहिंसा का काष्ठ जैसी निश्चेष्ट स्थिति सिद्धि करने मे ही पूर्ण नही पोषक है यह नहीं कह सकते है। होती; परन्तु वह अहिसा वास्तविक पात्मिक बलकी
यहाँ जैन तत्त्वज्ञान से सम्बन्ध रखने वाले विचार मे अपेक्षा रखती है। कोई भी विचार उद्भूत हुआ, किसी प्रमेयचर्चाका जान-बूझ कर विस्तार नही किया है। इस वासनाने सिर ऊंचा किया अथवा कोई सकुचितता मन मे विषय की जैन विचारसरणी का केवल सकेत किया है। प्रज्वलित हो उठी वहाँ जैन अहिसा यह कहती है कि-'तू प्राचार के विषय मे बाह्या नियमों और विधानो सम्बन्धी इन विकारो, इन वासनाओं और इन सकुचितताबो से चर्चा जान बूझ कर छोड़ दी गई है। परन्तु प्राचार के हनन को प्राप्त मत हो, पराभव प्राप्त न कर और इनकी मूलतत्वो की जीवन शोधन के रूप में सहज चर्चा की है, मना प्रकीकार न कर. त इनका बलपूर्वक सामना कर जिनकी कि जैन परिभाषा में पाश्रव, सवर, बन्ध, मोक्ष और इन विरोधी बलों को जीत ।' प्राध्यात्मिक जय प्राप्त आदि तत्त्व कहते है। आशा है कि यह सक्षिप्त वर्णन करने के लिये यह प्रयत्न ही मुख्य जैन अहिसा है। इसको जैन दर्शन की विशेप जिज्ञासा उत्पन्न करने में सहायक फिर संयम कहो, तप कहो, ध्यान कहो या कोई भी वैसा होगा।
जीवन-चरखा चरखा चलता नाही, चरखा हुमा पुराना। पग खूटे द्वय पालन लागे, उर मदरा खखराना। छीदी हुई पांखड़ी पसली, फिर नहीं मनमाना । रसना तकली ने बल खाया, सो अब कैसे खूटे । सबद सूत सूधा नहिं निकस, घड़ी घड़ी पल ? । प्रायु माल का नहीं भरोसा, अंग चलाचल सारे । रोग इलाज मरम्मत चाहै, वैद बढ़ई हारे। नया चरखला रंगा-चगा, सबका चित्त चुरावै। पलटा बरन, गए गुन अगले, प्रब देख नहिं भाव । माटो नहीं कातकर भाई, कर अपना सुरझेरा। अन्त प्राग में इंधन होगा, 'भूधर' समझ सबेरा॥
-कविवर भूधरदास