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कविवर वादीभसिंह सरि और उनकी बारह भावनाएँ
प्रकाश चन्द्र जैन
कविवर वादीभ सिह सूरि विरचित क्षत्रचूडामणि लिया। उपर्युक्त घटना को देखकर जीवन्धर स्वामी को एक बहुत ही सुन्दर, नीतिशिक्षक, धार्मिक एव साहित्यिक वैगग्य उत्पन्न हो गहा, इसलिए वे निम्न प्रकार बारह सौन्दर्य से समन्वित महाकाव्य है। इसमे जीवन्धर स्वामी भाबनायो का चिन्तवन करने लगे। की जीवन कथा को साहित्य के ढाँचे में ढालकर कविवर
अनित्यानुप्रेक्षा ने बहुत ही रोचक और उपदेशक बना दिया है। यह महाकाव्य नीति का एक विशाल सागर है। शायद ही
मद्यते वनपालोऽयं काष्ठाङ्गारायते हरिः ।
राज्यं फलायते तस्मान्मयैव त्याज्यमेवतत् ॥ कोई ऐमा उपयुक्त स्थल हो जहा कविवर ने नीतिवर्णन के प्रति उपेक्षा दिखाई हो।
महागज जीवन्धर विचार करते है कि जिस प्रकार
इस बन्दर ने कटहर के फल को तोड कर वानरी को जैनधर्म में बारह भावनामो का बहुत महत्त्व है । ये
दिया, परन्तु वनरक्षक ने शीघ्र ही उमे ताडते हुए फल भावनाये अात्मानुशासन एव वैराग्य वर्द्धन मे बहुत महा
वापिस छीन लिया, ठीक इसी प्रकार पहिले काष्ठाङ्गार यक होती है। इस महत्त्वपूर्ण विषय को नीतिवर्णन में
ने येन केन प्रकारेण मेरे पिता महाराज सत्यन्धर से कटिबद्ध कविवर वादीसिह कैसे स्पर्श न करते ? क्षत्र
राज्य प्राप्त किया था, परन्तु मैने इस योग्य बनकर चडामणि के ग्यारहवे लम्ब मे इन बारह भावनायो का
काष्ठाङ्गार का हनन कर उमसे वश परम्परागत अपना बहुत ही विस्तार में वर्णन हुआ । अनेकान्त के पाठको की
राज्य वापिस छीन लिया है। अतएव मै तो वनपाल के मानस तुष्टि के लिए उस वर्णन का मूलाश हिन्दी रूपान्तर
समान हु, तथा काष्टाङ्गार बन्दर के समान है और राज्य के साथ प्रस्तुत किया जा हहा है।
इस फल के समान है। अत मुझे ही इस राज्य को अवश्य महाराज जीवन्धर जब क्रीड़ा करते-करते थक छोड देना चाहिए। गये तो समीपवर्ती किसी बगीचे मे जाकर वन्दरो की क्रीडा
जाताः पुष्टाः पुनर्नष्टाः, इति प्राणभृतां प्रयाः। देख कर मनोरञ्जन करने लगे। उस बगीचे में जीवन्धर
न स्थिता इति तत्कुर्याः, स्थायिन्यात्मपदेमतिम् ।। महाराज ने देखा कि किसी एक बन्दर ने किसी दूसरी बन्दरी के साथ सभोग किया, जिससे कि उसकी वन्दरी
इस मंसार मे जितने प्राणी उत्पन्न होते है वे सब उससे नाराज हो गई। उस समय बन्दर ने उसे प्रसन्न
थोडे समय तक रहकर अवश्य ही नष्ट हो जाते हैकरने के लिए बहुत उपाय किये, पर वह असफल ही रहा ।
कोई भी स्थिर नहीं रहता, अतएव बुद्धिमान् प्राणी का
कर्तव्य है कि वह जगत की समस्त वस्तुप्रो को नश्वर तब बन्दर मरे हुए के समान बनकर जमीन पर लेट
जानकर अविनश्वर मोक्ष को प्राप्त करने की चेष्टा करे । गया। उस समय बन्दरी उसे मरा हुआ समझ कर भयभीत हुई और उल्टी वन्दर की शामद करने लगी।
स्थायोति क्षणमात्रं वा ज्ञायते नहि जीवितम् । जैसे ही बन्दरी की खुशामद से प्रसन्न हुए बन्दर ने अपने
कोटेरप्यधिकं हन्त, जन्तूनां हि मनीषितम् ।। कपटी वेश को छोडकर बन्दरी को एक कटहल का फल इम जीवन के क्षण भर भी स्थिर रहने का विश्वास प्रेपित किया, वैसे ही बनमाली ने बन्दर और बन्दरी दोनो नहीं, परन्तु प्राणियो की इच्छा करोड़ों से भी अधिक है। की एक डण्डे से खवर ली और वह फल बन्दरी से छीन ऐमी हालत में उनका पूर्ण हो सकना बिलकुल असम्भव है।