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________________ कविवर वादीभसिंह सूरि धौर उनकी बारह भावनाएं अवश्यं यदि नश्यन्ति, स्थित्वापि विषयाश्चिरम् । स्वयं त्याज्यास्तथा हि स्यान्मुक्तिः संसृतिरन्यथा ॥ पंचेन्द्रिय सम्बन्धी विषय प्राणी को क्षणिक सुख देकर एक न एक समय नष्ट अवश्य हो जात है। ऐसी हालत मे जो मनुष्य विचार पूर्वक उनका त्याग कर देता है, वह तो पापबन्ध से रहित हो जाता है । किन्तु इससे विपरीत विषय ही यदि जीव का सम्बन्ध छोड़कर नष्ट हो जाते है और मनुष्य उन्हे स्वयं ही नहीं त्यागता है तो उसके ससार परिभ्रमण का कारण पाप का बन्ध होता ही रहता है। अनश्वर-सुखावाप्तौ सत्यां नश्वरकामतः । कि पूर्ववनयस्यात्म क्षणं वा सफलं नय ॥ जब कि इस नश्वर - मनुष्य शरीर से अविनश्वर मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है, तब विवेकियो को अपना समय व्यर्थ खोना उचित नहीं, मोक्षप्राप्ति के यत्न में ही उसे खर्च करना लाभदायक है । अशरण अनुप्रेक्षा पयोधी नष्टateस्य परियते । 1 सत्यपाये शरण्यं न तत्स्वारथ्ये हि सहस्रया ॥ हे धारमन् | जिस प्रकार समुद्र के बीच मे नौका से रहित हुए पक्षी का कोई रक्षक नहीं होता, अधिक न उड़ सकने के कारण उसका जीवन वही समाप्त हो जाता है। उसी प्रकार आपत्ति के आ जाने पर प्राणी का कोई भी रक्षक नही होता । श्रई हुई विपत्ति का सामना केवल उसे ही करना पड़ता है । किन्तु इसके विपरीत कुशलता के होने पर अपरिचित जन भी मित्रता करने लगते है। श्रायुषीयंरति स्निग्धै- बंन्धुभिश्चाभिसम्वृतः । जन्तुः संरक्ष्यमाणोऽपि पश्यतामेव नश्यति ॥ जब प्राणी की मृत्यु का समय श्रा जाता है, तब उसे बडे-बडे शस्त्रधारी योद्धा और निजी बन्धुजन भी क्यों न घेरे रहे, परन्तु फिर भी वह काल के ग्रास से नही बच सकता । उसके प्राण पखेरू देखने वालो के सामने ही उड़ जाते है। मंत्र तत्रादयो ऽप्यात्मन् स्वतन्त्र शरणं न ते । किंतु सत्येव पुण्ये हि नोचेत्के नाम तैः स्थिताः ॥ इस संसार में मृत्युजय यादिक मंत्र और तरह-तरह के तंत्र पुण्य का उदय रहने पर ही सहायक रहते हैं। पुण्य क्षीण होने पर नहीं यदि पुष्पोदय न होने पर भी ये मषादिक प्राणरक्षण मे स्वतन्त्र सहायक हो सकते तो अनेक मात्रिक, वैद्य और डाक्टरों द्वारा चिकित्सा करने पर भी प्राणियों की मृत्यु क्यो होती है ? संसार अनुप्रेक्षा नटवन्नक वेषेण भ्रमस्यात्मन् स्वकर्मणा । तिरदिव निश्ये पाचाद् दिवि पुष्याद्द्यान्नरे ।। १७७ जिस प्रकार कोई नट अपने कर्म के निमित्त से तरहतरह के वेशो को बदल कर जगह-जगह घूमा करता है, उसी प्रकार यह प्राणी भी अपने द्वारा किये गये पुष्प धौर पाप कर्म के उदय से ग्राठो कर्मों के नाश होने तक योग्यतानुसार चारो गतियों मे घूमा करता है। पञ्चानन इवामोक्षादसिपञ्जर प्राहितः । tosपि दुःसहे देहे देहि-हन्त कथं वसेः ॥ हे आत्मन् ! जैसे लोहे के पिजड़े मे बन्द किया गया कोई शेर विवश होकर उसमे रहता है, उसी प्रकार क्षण मात्र भी न सहन करने योग्य इस देह रूपी पिजरे मे स्थित रहना तेरे लिए भी उचित नहीं, तुझे भी मुक्ति के उपाय का अन्वेषण करना चाहिए । तन्नास्ति बन्नैव भुक्तं, पुद् गलेषु मुहुस्त्वया । तल्लेशस्तव किये बिन्दु पीताम्बुधेरिव ॥ 1 हे धात्मन् इस संसार मे अनन्त पुद्गल ( कार्माण वर्गणा ) है उनको यह जीव अनेक बार भोग चुका है । अतएव जैसे समुद्र भर पानी पीने के इच्छुक व्यक्ति को एक बूद जल के पीने से कभी सन्तोष नही होता, उसी प्रकार पुद्गल के कुछ अशो के सेवन से तुझे भी कभी सन्तोष नही हो सकता । भुक्तोभितं तदुच्छिष्टं भोक्तुमेयोत्सुकायसे । प्रभुक्तं मुक्तिसौख्यं त्व-मतुच्छं हन्त नेच्छसि ॥ हे श्रात्मन् ! तू जिन वस्तुनो को अनेक बार भोगकर उच्छिष्ट कर चुका है, उन्हीं को बार-बार भोगने के लिए उत्सुक होता है, परन्तु खेद है कि जिस अविनश्वर और आनन्दप्रद मोक्ष सुख का तुझे एक बार भी स्वाद नही मिला है, उसके पाने की कभी चेष्टा भी नहीं करता ।
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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