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कलचुरि काल में
जैन धर्म की स्थिति
--प्रो० शिवकुमार नामदेव डिडौरी (मडला)
राजनैतिक दृष्टिकोण से प्राचीन इतिहास में कलचुरि के ताम्रपत्र तथा तामिल भाषा के पेरियपुराणम् से यह नरेश का महत्वपूर्ण योगदान है। ६ वी शताब्दी से लेकर सिद्ध किया है कि ये 'कलभ्र' प्रतापी राजा जैन धर्म के १० वीं शताब्दी तक इन नरेशों ने भारत के उ० प्रथवा पक्के अनुयायी थे। इनके तामिल देश में पहुँचने से जैन द. किसी न किसी भूभाग पर शासन किया।
धर्म की वहाँ बहुत उन्नति हुई । श्री प्रायगर का अनुमान कलचूरि नरेश धामिक दृष्टि से सहिष्ण थे प्रतः अन्य है कि ये 'कल' कलचुरि वंश की ही शाखा के होगे। धर्मों के साथ २ जैन धर्म भी उस काल में पल्लिवित हुआ। मध्यप्रदेश के कलचुरि नरेश जैन धर्म के पोषक थे। इसका कलचुरि काल में जैन धर्म, बौद्ध धर्म की अपेक्षा अधिक एक प्रमाण यह भी है कि उनका राष्ट्रकूटों से घनिष्ठ समृद्ध था। स्व० पूज्य ब्र० शीतलप्रसाद जी ने 'कलचुरि' सम्बन्ध था जो जैन धर्मावलम्बी थे। नाम का अन्वयार्थ उनके जैनत्व का द्योतक बताया था। त्रिपुरी के कलचुरि नरेश एवं जैन धर्म : उनका कथन था कि कलचुरि नरेश जैन मुनिव्रत धारण त्रिपुरी के कलचुरि नरेशो के काल में जैन धर्म का करते और कमों को नष्ट करके शरीर बंधनो से मुक्त होते भी प्रसार हुअा था। बहुगेवंद (जबलपुर) से एक विशाल थे। इसलिये वे कलचुरि कहलाते थे। 'कल' का अर्थ शरीर जैन तीर्थकर भगवान् शातिनाथ की अभिलेख युक्त मूति है जिसे वे चूर मूर (चूरी) कर देते थे। निःसंदेह कलचुरि प्राप्त हुई है। जिससे ज्ञात होता है कि साधु सर्वहार के वंश जैन धर्म का पोषक था। उसके प्रादि पुरुष सहस्ररश्मि पुत्र महाभोज ने शांतिनाथ मन्दिर का निर्माण करवाया कार्तवीर्य ने मुनि होकर कर्मो के नष्ट करने का उद्योग था तथा उस पर सूत्रधार ने श्वेत छत्र का निर्माण कराया ही किया था।'
था। कलचुरि नरेश प्रारभ मे जैन धर्म के पोषक थे। ५ वी
इसके अतिरिक्त त्रिपुरी से प्राप्त ऋषभनाथ की ६वी शताब्दी के अनेक पल्लव एवं पाण्डय लेखों में वरिणत प्रतिमा जबलपुर के हनुमानताल जैन मदिर की ऋषभनाथ' है कि 'कलभ्र' लोगों ने तामिल देश पर आक्रमण कर -का० इ०१०४१ क्रमांक ५६ फलक ४८ पृष्ठ ३१०, सी० चोल चेर एवं पाण्डवो को परास्त कर अपना राज्य स्था
ए. एस० पाई. पार० ग्रन्थ पृष्ठ ४०, पी० पार. पित किया था। प्रो. रामस्वामी प्रायंगर ने बेल्वि कुडी
ए. एस० पाई. डब्ल्यू पाई. १९०३-१९०४ पृष्ठ १-संक्षिप्त जैन इतिहास भाग ३ खण्ड ४ (दक्षिण भारत ५४-५५, एच० टी० एम० पृष्ठ १०७, खण्डहरों का
का मध्यकालीन अंतिम पाद का इतिहास) कामताप्रसाद वैमव पृष्ठ १७३ । जैन पृष्ठ
४-एच. टी. एम. पृष्ठ २०६ । २-स्टेडीज इन साउथ इंडियन जैनिज्म पृ० ५३-५६ । ५-वही पृष्ठ १६६।