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मनि श्री विद्यानन्द : भुजंगी विश्व के बीच चन्दन के बिरछ
मिलता है, अन्यत्र दुर्लभ है। चित्त करुणा में प्रवगाह बड़ी प्रात्मीयता से कहा-'नहीं हर व्यक्ति धर्म और उठता है । दक्षिण के राम, उतर के राम, पूरब के राम, अधर्म में फर्क करता है। तुम स्वय भी धर्म को अच्छा पश्चिम के राम; सव भोर की रामता-अभिरामता उनमे मानते हो अधर्म को बुरा।" छात्र ने प्रत्युत्तर मैं कहासमायी हई है। न उन्हें पूरब की बुराइयों का मोह है, "जब मैं वराबर यह कह रहा है कि मेरा धर्म में कोई न पश्चिम की अच्छाइयों से कोई द्रोह। मच्छाई को विश्वास नहीं है फिर आप यह कैसे कहते है ?" मुनिश्री वे जीवन की हर खिड़की से प्राने देना चाहते ने पूछा-“यदि कोई तुम्हारे सिर पर लाठी मारे तो हैं। जहां भी जीवन की रोशनी देनेवाला कोई तत्त्व तुम्हें कैसा लगेगा?" छात्र ने तुरन्त जवाब दियादिखायी देता है, वे उसकी अगवानी में पलक-पावड़े
"वहुन बुरा।" "और यदि फिर कोई तुम्हारी मरहमबिछा देते है, उनके अभिनन्दन मे समाज को प्रेरित करते पट्टी के लिए अस्पताल ले जाए तो?" छात्र ने सहज ही हैं। उनका कर्तृत्व महान है, उनका जीवन समर्पित है
उत्तर दिया-"वह तो अच्छा लगेगा ही।" मुनिश्री ने, प्रात्मा की अनन्त यात्रा मे, और इमी बीच उनकी प्याऊ
सूत्र पकड़कर स्पष्ट किया कि "पहला कृत्य अधर्म है मे जो भी पिपासु पहुँच जाता है, उसे अनन्त तृप्ति का
दूसरा धर्म।" जापानी छात्र-दल धर्म की इस स्वाभावरदान अनायास ही मिल जाता है; जो भी व्यथित
विक परिभाषा को पाथेय के रूप में लेकर लौट गया। तृषित वहा उन तक पहुँचता है, उसके मन के सारे घाव
इस तरह मुनिश्री का एक रूप जीवन के सदों और भर जाते हैं उनकी चन्दन-चर्चा से ।
मूल्यों को नयी व्याख्या देने का भी है। वे वर्तमान के इस लेख का अन्त हम तरुण पत्रकार श्री गजानद प्रति सतर्क भविष्य के प्रति प्राशावान और अतीत के प्रति डेरोलिया के इस ले खांश से करना चाहेगे : "दिल्ली में आस्थावान है। एक बार मुनिश्री के दर्शनों के लिए जापान के छात्रों का इसलिए उनके इस जन्म दिन पर उन जैसे परम एक दल पाया। छात्रो में से एक ने कहा-"हमारे यहाँ योगश्वर को. जो युद्ध-संतप्त विश्व की प्रांखों में अनेकान्त तो धर्म-अधर्म का कोई भेद ही नही है ।" मुनिश्री ने का प्रजन प्रांज रहा है, मेरे कोटि-कोटि प्रणाम !!
चारित्र-चक्रवती प्राचार्य श्री शान्तिसागर महाराज का सीवां जन्म दिन
समारोहपूर्वक मनाइये
भगवान महावीर के २५००वं निर्वाणोत्सब के बनी हुई है। ऐसे नित्य प्रणग्य प्राचार्य श्रेष्ठको जन्म मंगलाचरण की इस पण्य वेला में चारित्र चक्रवर्ती महा- शताब्दी प्राषाढ़ कृष्णा ६ वी०नि०सं०२४६पासात मनि प्राचार्य श्री शान्तिसागर महाराज की जन्म शताब्दी कृष्णा ५ वी. नि. स. २५०० के मध्य सम्पन्न होगी। का उपस्थित होना एक भाग्यशाली संयोग है। सर्वे इसे पूरे पुरुषार्थ मोर प्रभाव के साथ मनाने की प्रावश्यविदित कि प्राचार्य श्री दिगम्बर श्रमण-परम्परा के कता है ताकि वर्तमान पीढ़ी में मुनि-परम्परा के प्रति एक विशाल कल्पतरु थे. जिन्होंने माधुनिक जीवन की विष- नयी प्रास्था प्रवर्तित हो और जैन समाज को संस्कार की मतानों. प्रसंगतियों और अन्तविरोधों से दिगम्बर जैन एक नयी दिशा मिल सके। प्राचार्य परम्परा का अभिरक्षण किया या मोर युगानुरूप-...- प्राचार्य श्री न केवल एक साधनावान महामुनि थे शिष्य-परम्परा का प्रवर्तन किया था। यही कारण है कि वरन् जैन तस्व-संस्था थे। उन्होंने सम्पूर्ण देश की मंगल. उनकी तेजस्विनी शिष्य-परम्परा माज जैनधर्म की सूत्रधार यात्रा की थी। हम भाग्यशाली है कि प्राचार्य श्री द्वारा