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________________ १०, वर्ष २६, कि.१ अनेकान्त कर्नाटक प्रदेश के वेलगांव जिले के शेडवाल ग्राम में २२ चाहता है। 'सरल रेखाएं-माज के जमाने में कौन अप्रैल, १६२५ को हुना। सुरेन्द्र कुमार से पार्श्वकीति मौर डालेगा भला, खैर लाइये, देखें क्या कुछ किया जा सकता पावकीति से मुनिश्री विद्यानन्द उनकी साधना के सोपान है।" उन्होंने एक कागज उठाया और लगे लिखने एक हैं। ब्रह्मचर्य, क्षुल्लक-जीवन और अब परम दिगम्बर त्व। चित्र । प्राहार-मुद्रा, पिच्छी, कमण्डलु । कम रेखाएँ, कन्नड, संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी. मगठी, अग्रेजी अधिकाधिक भावाभिव्यंजन । मैं स्तब्ध रह गया। सोचने और नाम लम कितनी भाषाम्रो के जानकार वे हैं। उस लगा-ये मुनि हैं, महामनि है। जीवन के चित्रकार है। दिन जब जापानी के कुछ पर्यटक उनसे मिलने आये तो मुक्ति के शिल्पी हैं; मानवता के चितेरे है, प्राखिर है वे जापान के बारे में जानने के लिए बालक से ललक क्या? मुनिश्री सब हैं, कुछ भी नहीं हैं। उनमें वस्तुतः उठे। जापान तो जापान, जापानी की सांस्कृतिक और शन्य की विराटता प्रकट हुई है। कुछ लोग प्राते है। उन्ह धार्मिक शब्दावली तक उन्होने जान ली इस बीच । वे जो अंक से पूर्व रख ले जाते हैं, कुछ उन्हें अंक के बाद रख भी भाषा जानते हैं या सीखते हैं, उनका उद्देश्य मात्र कर दस. सौ, हजार, लाख गुना होकर पाते हैं। मुनिश्रा ज्ञान होता है। वे भाषा द्रोह को मानवता का. राष्ट्रीय हैं. प्राप चाहे जो उनमें से हों। गंगा का तट है, जल का चिन्तन का बहुत उथला तल मानते हैं। माध्यम की स्वाद अलग-अलग अनुभूतियों में अलग-अलग हो सकता अपेक्षा लक्ष्य पर ही उनका ध्यान बना रहता है, किन्तु है। वैसे गंगा की धारा है, उसे पापकी वैयक्तिकता से साधन को भी प्रतिपल निर्मल देखना उनकी साधना का कोई सरोकार नही है। ऐसे है योगेश्वर मुनिश्री विद्यानन्द । उज्ज्वलतम पक्ष है। उनकी मूल्यवान कृति "पिच्छ- संयोगितागंज (इन्दौर) की बात है । तब वे वहाँ के कमण्डलु" इस दृष्टि से उनके विचारों का नवनीत है। मन्दिर में विराजमान थे। मूर्तियों का प्रसंग प्राया, तो वह एक संकलनीय कृति है। ज्ञान से परिपूर्ण, दिशा-दृष्टि वे खड़े हो गये; और मन्दिर की सारी मूर्तियों तक घुमा देने में समर्थ । लाये । इस बीच उन्होंने बताया कि मूर्ति कसी होनी मुनिश्री परमार्थ पुरुष हैं। उनमें दक्षिण और उत्तर, चाहिए ? दर्शक को नेत्र मुद्रा और मूर्ति की मुख-मुद्रा में व्यवहार और निश्चय, लोककल्याण और प्रात्मकल्याण, कसा साम्य होना चाहिए ? मूर्तियों की शिल्प-रचना व्यक्ति और विश्व, अनेकान्त और स्याद्वाद, यानी विश्ले- क्या है ? उनके कितने प्रकार है ? इत्पादि । सारी बाते षण और संश्लेषण एक साथ स्पन्दित हैं। इस दृष्टि से और इतने विस्तार से जानकर मै दंग रह गया और मनउनके प्रवचन ज्ञान के प्रतलांत समुद्र है; जहां विद्वान् ही मन कहने लगा "केसव कहि न जाइ का कहिये।" को अधिक विद्वता; और एक औसत प्रादमी को सही मुनि हो तो ऐसा, मन ने महसूस किया, जो भीतर जीवन-दिशा मिल जाती है। वह झूम उठता है मुनिश्री से परम साधक और बाहर से विशुद्ध तपस्वी; के जीवनदायी संकेतों पर । वे धार्मिक हैं, वैश्विक है, माठों याम तपस्वी ; पूर्ण स्व-अर्थो स्वार्थीरेशे भर राष्ट्रीय है; जुदा जुदा और युगपत । आँख चाहिए, वे भी नहीं; परमार्थ ऐसा कि जो हर बार मिल रहे उसके लिए परम दृष्टि हैं; पालोक के लिए प्रालोक, परम स्वाद को निरन्तर अकृपणभाव से बाट रहा है । उज्ज्वलता के लिए उज्ज्वलता, पावनता के लिए पाव- जो इस रहस्य को सतत जान रहा है कि ज्ञान जितना नता के अजस्र स्रोत है मुनिश्री विद्यानन्द । बॅटेगा, उतना बढ़ेगा, मंजेगा और निर्मल होगा। इस एक दिन मैं उनके मनोतट पर अपनी नौका लगा तरह मुनिश्री ज्ञान के प्रतल पाराबार है, ज्ञान सुमेरु हैं । बैठा । यही शाम के कोई पाँच बजे होगे । एकान्त था। उनका अध्ययन गहरा है। वे जिस सूत्र को पकड़ते एक बड़ो इमारत, पास-पास चहल पहल ; किन्तु भीतर हैं उसे मन्त तक खोजते है। राम को लें, राम कथा को से बिलकुल शान्त । मैने मुनिश्री से कहा- "तीर्थङ्कर" लें। इसे उन्होंने १८ भाषामों में से जाना है। इसीलिए मे कुछ कम और सीधी-सरल रेखामो बाले चित्र छापना सीता का, राम का जो चरित्र उनके मुह से सुनने को
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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