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________________ मुनि श्री विद्यानन्द: भुजंगी विश्व के बीच बबन बिरछ मानस को अपूर्व कर्मनिष्ठा से भर देगा, उसे साधना में जीवन बड़ी स्थूल यात्रा कर रहा होता है। किन्तु जब जगा देगा । और यह सर्वथा सत्य भी है कि उनकी वाणी परिभाषा माचरण में अनुगंजित होती है, तब यात्रा अपने मन को उमगाती है, तन को संयम मे जगाती है, और अत्यन्त सूक्ष्म और प्रभावी दौर मैं होती है। मुनिश्री धन को सच्ची राह पर मोड़ देती है। माया को चका- का सम्पूर्ण जीवन इसी तरह की मंगल यात्रा है। उनसे चौंध में, उसकी मृगतृष्णा में बंधे नामालूम कितने लोग प्राप पूछ ही क्यों, उन्हें गौर से देखें कि वे क्या कर रहे मुनिश्री के पास नित्य पहुँचते हैं; किन्तु सब एक अनन्त हैं ! इस देखने में ही आप जैनधर्म के मूल रूप को, तृप्ति और शीतलता लेकर लौटते है। वे हिमालय तक विश्व-धर्म की वर्णमाला को जान जाएंगे। बात यह है कि गये हो, या नहीं (गये हैं) किन्तु दर्शनार्थी उनके दर्शन के जो ऊलजलल सवालों में जीते हैं, उनके मन मैले होते हैं। साथ एक हिमालय अपने भीतर पिघलते देखता है. जो वे किसी बात को ताडने जाते हैं। उनकी नीयत मे खोट उपके जनम-जनम के सौ-सौ ग्रीष्म शान्त कर देता है। होती है। किन्तु जो गंगाजल पीने जाता है, वह अजलिया वन्दना से उसके मन मे कई पावन गगोत्रियां खुल जाती भर-भर उसे सम्पूर्ण निष्ठा और तृप्ति में पीता है, उसका है । इस तरह मुनिश्री के दर्शन जीवन के सर्वोच्च शिखर रसास्वाद लेता है; किन्तु जो पुण्यतोया गगा की जाच के दर्शन है, वे परमानन्द के द्वार पर चत्तारि मंगल की करने जाते हैं, उन्हें उसका कोई स्वाद नहीं मिलता; वक्त वंदनदार हैं। जाता है, शक्ति डूबती है। मुनि श्री गंगा की पतितपावनी बहुधा लोग सोचते हैं मुनिश्री विद्यानन्द जो दिगम्बर जलधार है, बिलकुल "गूंगे के गुड" अनुभूतिगम्य । जानना वेशधारी मुनि है, होंगे रूढ़िग्रस्त; शास्त्र जिस तरह हो तो साधना करो, स्वच्छ बनो और जानो; नहीं जानना वेष्ठन मे बघा होता है, वैसे ही परम्परा के वेष्टन में हो तो गंगा की धार को प्रागे बढ़ने से भला कौन रोक लिपटे कोई व्यक्ति होंगे; किन्तु एक ही क्षण में उनकी सकता है! खों पर से यह धुंध हट जाती है और उन्हें नवनिधियों मुनिश्री शास्त्र हैं। उन्होंने शास्त्र-सिन्धु का महाका अनन्त कोष मिल जाता है। उसके सम्मुख ज्ञान का, मंथन किया है। उनके प्रवचन ममतकलश है उस महाशानन्द का एक प्रखूट खजाना खुल जाता है। उसे लगता मत्थन के । बात-बात में खूब गहरे जाना उनका स्वभाव है जैसे वह किसी माध्यात्मिक कल्पवृक्ष की छाँव में खड़ा है। मनोविनोद भी मोर जीवन की अतल गहराई भी, है, जहां उसकी हर अभिलाषा सुहागन है। मुनिश्री न उनके बोलने मौर जीने में देखी जा सकती है । वे शिशु से रूढ़िवादी हैं, न परम्परा-भक्त; वे विशुद्ध सत्यार्थी हैं। सरल, शिशु से प्रश्नवान, और शिशु से प्रतिपल उत्कण्ठित उनका विश्वास न प्राडम्बर है, न पाखण्ड में; उन्हें रहते हैं। शैशव का अद्भुत सारस्य उनके व्यक्तित्व का केवलज्ञान, सम्यग्ज्ञान चाहिए। उनकी साधना अनुक्षण अविभाजी अंग है। उन्हें वृद्धों में वह रस नहीं मिलता उसी पर केन्द्रित हैं; किन्तु उनके चिन्तन की उदारता जो बच्चों में मिल जाता है। इसलिए वे बच्चों से बतरस व्यक्ति. समाज, मुल्क और सारे संसार को छू लेती है, करते हैं, उनकी सरल-निश्छल मुस्कराहट का स्वयं एक विश्वामिक स्वस्थ वातावरण में कस लेती है। पास्वाद करते हैं, और फिर उपस्थितों पर उस खजाने व्यक्तिधर्म से लेकर लोकधर्म की सारी परिभाषाएँ को उलीच देते हैं। बच्चों से उन्हें ताजगी मिलती है। मुनिश्री के व्यक्तित्व में समायी हुई हैं। उनसे भेंट का लगता है वे अंग्रेजी की इस कहावत के मर्म को जानते मतलब ही विश्वधर्म से हुई परमपावनी मुलाकात से है। हैं-"चाइड इज द फादर प्राफ मैन"। शास्त्र की यदि आप जानना चाहते हों कि विश्वधर्म क्या है, तो शकता को शिशमलभ सौन्दर्य, सारख्य, निवर मोर मुनिश्री के विचारों का सम्पूर्ण एकाग्रता में प्राचमन नश्छल्य के रस में शराबोर करना मुनिश्री के व्यक्तित्व कीजिए और एक विलक्षण भात्मस्फति में विश्वधर्म की का बड़ा पाकर्षक भाग है। भनुभूति कर लीजिए। जब परिभाषाएँ की जाती हैं तब मुनिश्री एक राष्ट्रीय समन्वय-सेतु हैं। उनका जन्म
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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