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________________ मुनि श्री विद्यानन्दः भुजंगी विश्व के बीच चन्दन के बिरछ डा० नेमीचन्द जैन जिस दिन मुनिश्री विद्यानन्द जी से साक्षात् हुमा, नही है, क्या मित्रो का ध्यान रखना बुरा है।" इस बीच उस दिन सहसा कबीर की याद मन मे मंडराने लगी। उन्होने दूसरा कश भरपूर खीच लिया था। मैने चिकोटी कबीर की कई साखियां मन पर झमाझम बरस पड़ी। लेते पूछा-"पाप सिगरेट तो बडी प्रदा से पीते है। इसके एक साखी-बदली बरसकर कह गयी-'साष कहावन अन्धभक्त है क्या ?" उन्हे उत्तर मिल गया था, मोर वे कठिन है, लम्बा पेड़ खजूर । चड़े तो चाखे प्रेमरस, गिरं प्रब किसी खाम घबराहट में जाना चाहते थे; किन्तु मैने तो चकनाचूर ॥" इसके अर्थगौरव पर मन को मोर नाच- जाते-जाते उनके कान में कबीर की एक गरम-सो साखा नाच उठा; और लगा जैसे मेग ध्यान कमल को पांखरी डाल दी-"जाति न पूछो साधु को, पूछ लीजिए ज्ञान । पर मोती-सी दमकती किसी बूद पर चला गया है। बूद मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ।" तलवार दमक रही है पाखु डी पर, पोर पाखुरी पाखरी है। दोनों का मोल करना योद्धा का काम है, कितने है ऐसे रण. साथ, दोनों अलग। ऐसा अभिनव-प्रलौकिक बोध हुमा बाकुरे जो जीवन से मुखातिब है और तलवार की धार उस परम व्यक्तित्व का उस दिन जैसे अनेकान्त ने नवा- का सम्पूर्ण प्रहमास कर रहे है। आज अधिकाश लोग कार ग्रहण किया हो और वह अपनी सम्पूर्ण छटा और म्यान पर झगड रहे है, ज्ञान पर किसी का ध्यान नहीं है । वैभव में मेरी प्रांखों के सामने उपस्थित हो। इतने मे इधर मुनिश्री की पगतली साधना की दुधारी तलवार पर कबीर को दूसरी साखी मन पर पलथी मारने लगी- है और वे ज्ञान की खोज मे प्रतिपल कर्मरत है। उनका परमारथ के कारणे, साधन परा शरीर"। मन मान गया एक क्षण भी क्षीण नहीं है. उसके मुरझने से पहले वे उसके कि मुनिश्री की डगर खांडे की प्रखर घारहै। वे प्रात्मार्थी सौरभ को निचोड़ कर दुनिया को बांट देते है। रोरब हैं, प्रात्मानुसंघानी है; और समाज-हित में भी बड़े चौकस और कौरव के इस जमाने मे सौरभ की वन्दना जो नहीं और अनासक्त वृत्ति से चल रहे है। उनकी मुसकान में कर पाते, उनके प्रभाग्य की कलाना मैं सहज ही कर समाधान है और वाणी में समन्वय का अनाहत नाद । सकता हूँ। उनका हर कदम मानवता की मंगल मुस्कराहट है और प्राज जब पूज्य मुनिश्री ४८ वर्ष के हुए हैं, उनकी हर शब्द जीवन को दिशा-दृष्टि देने वाला है। कहें हम को दिशा-दृष्टि देने वाला है । कह हम साधना विश्वधर्म की सार्थक परिभाषा घड़ रही है। कि, वे भुजंगी विश्व के बीच चन्दन के बिरछ है, अनन्त उनका तेजोमयव्यक्तित्व, अंगारे सी प्रहनिश दहकती सुवास के स्वामी। ज्ञान-देह देखकर कोई भी विस्मय-विमुग्ध खड़ा रह जाता एक बार एक सज्जन घर पाये। कहने लगे माप है। एक सहज मुस्कराहट, निद्वन्द्व मुखमडल, विशालमुनिश्री विद्यानन्द जी के अन्धभक्त हैं। मैंने सहज ही भव्य ललाट, ज्ञान के वातायनो से सम्यक्त्व-खोजते नेत्र, कहा- "इस में प्रापको कोई आपत्ति है; भक्ति और जीवन को टटोलती चेहरे की हर मुद्रा देह मे कहीं कोई माराधना तो व्यक्तिगत मुद्दे है।" सिगरेट का कश खीचते शिकन नहीं। परमानन्द की मगलमूर्ति मुनिश्री जब प्रव. हुए बोले-"नही वैसे ही; पापको उनके पास माते-जाते चन की मुद्रा में विशाल जनमेदिनी के सम्मुख उपस्थित देख लिया था ।" मैंने कहा-"यानी पाप मित्रो पर होते हैं, तब ऐसा लगता है जैसे प्राची में कोई सूरज उठ जासूस निगाह रखते हैं।" तड़प कर बोले-"वैसा कुछ रहा है जो मध्याह्न तक पहुँचते-पहुँचते उपस्थित लोक
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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