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. अनेकान्त -
उन्ही दिनों "राजस्थान इतिहास कांग्रेस" का तृतीय प्रषि- प्रामाणिकता से कुछ भी नहीं कहा जा सकता। प्रावश्यक वंशन वहाँ हो रहा था। मैंने भी उस समायोजन में रिण को कथावस्तु स्पष्ट है, अतः उसके पाधार पर दृढ़ता 'राजस्थान के जैन साहित्य का एक ऐतिहासिक अवलोकन' से कहा जा सकता है, चाणक्य परम्परागत जैन होने के शीषक से शोध-पत्र पढा । प्रसंगोपरान्त उसमें एक उल्लेख साथ-साथ तत्वज्ञान सम्पन्न तथा परम सन्तोषी श्रावक था, सम्राट चन्द्रगुप्त जैन थे। प्रभोत्तर काल में विद्वानों ने था। उसके पिता भी परम श्रावक थे। सक्षेप मे उस सबसे अधिक इसी पहलू कोअपमा केन्द्र बनाया। विचार कथावस्तु का सार इस प्रकार है:-गोल देश में चरणक चर्चा सरसता के साथ कुछ लम्बी हो रही थी, अतः यह ग्राम था। चणी बाह्मण वहाँ का प्रवासी था । वह श्रावक निर्णय रहा, इस पहलू पर कभी स्वतन्त्र रूप से चर्चा की था। उसके घर जन श्रमरण ठहरे। उन्ही दिनों चरणी के जाये । कुछ ही दिनो बाद राजस्थान विश्वविद्यालय के घर एक पुत्र का जन्म हुआ। उस बालक में विचित्रता इतिहास विभाग की ओर से एक संगोष्ठी का प्रायोजन थी। जन्म से ही उसके दाँत समुदगत थे । चरणो ने बालक हु पा, जिसका विषय रखा गया, "सम्राट् जैन या हिन्दू ?" को श्रमणो के चरणो मे प्रस्तुत करते हुए प्रश्न कियाएक घण्टे के मेरे भाषणोपरान्त डेढ़ घण्टे की सरस प्रभा- 'सदन्त बालक का भविष्य कैसा होगा ?" श्रमण ने कहातरी चली। विषष का पूर्ण मन्थन हुमा । विभागाध्यक्ष “यह बालक के राजा होने की सूचना है।" चरणी का डॉ० जी० सी० पाण्डे ने उपसहार भाषण में कहा- चिन्तन उभरा, राजा को राज्य के सरक्षरण मे अनेक प्रकार "मुनिश्री द्वारा प्रस्तुत तर्कों को खण्डिन करने के लिये तीन के पाप-कार्य करने होते हैं। पापकारी कार्यो का परिणाम चार वर्ष के गहरे अनुसन्धान की अपेक्षा होगी। उसके प्राध्यात्मिक दृष्टि से दुर्गति है । मेरा पुत्र दुर्गतिगामी न हो, अनन्तर भी मुनिश्री के तौ का समाधान हम दे पाने में इस अभिप्राय से उमने दात घिस दिये । चणी ने श्रमण सफल हो पायेगे, यह भी संदिग्ध है।"
से पुनः प्रश्न किया तो थमण ने कहा-"प्रब यह बिम्बामेरा भी अपना पध्ययन चलता रहा। पक्ष विपक्ष के न्तरित राजा होगा।" प्रमाणो पर तटस्थ समीक्षा करता रहा। मन में विश्वास बालक का नाम चाणक्य रखा गया । शंशव की देहली था, सम्राट चन्द्रगुप्त जैन थे, महामात्य चाणक्य जैन नही को पार कर जब उसने किशोरावस्था में प्रवेश किया, था। यह मेरे अध्ययन की धुरी थी। पर, कहना होगा, चौदह प्रकार की विद्याप्रो का प्रध्ययन किया। तत्व-ज्ञान चन्द्रगुप्त के जनत्व को प्रमाणित करने के उपक्रम में चाणक्य मे भी वह प्रवीण हुप्रा । वह श्रावक बना तथा परम भी परम्परागत जैन था, ये प्रमाण भी उपलब्ध होने लगे। सन्तोषी जीवन जीने लगा। मै उन्हें एकत्र करने लगा। अनेक प्रमाणों की उपलब्धि ने इसी सदभं मे चाणक्य की पत्नी के पीहर में अपमान, सहज ही प्रस्तुत निष्पत्ति की मोर अग्रसर कर दिया। राजा नन्व की सभा में चाणक्य का गमन, दासी द्वारा समीक्षणीय दृष्टि से उन्हें प्रस्तुत करते हुए विशेष हर्षानु- अपमान, चाणक्य द्वारा नन्द माम्र ज्य के उन्मूलन को भूति है। इसी के साथ चन्द्रगुप्त, विक्रमादित्य, सातवाहन प्रतिज्ञा. मौर्य सन्निवेश में चन्द्र गुम की माता के चन्द्रपान के प्रादि नरपतियों के जैनत्व के बारे में भी यथासमय तथा दोहद की पूर्ति, चन्द्रगुप्त का अधिग्रहण, राजा पर्वत के यथासंग तर्कणा की जायेगी।
साथ मैत्री, राजा नन्द के साथ युद्ध, नन्द का पतन, परम सन्तोषी तथा तत्वज्ञानी:
मन्द की राजकुमारी का चन्द्रगुप्त के साथ विवाह जैन साहित्य में चाणक्य के जीवन-प्रसंग प्राचीनता १. उमुक्फ बाल मावरण पेद्दस विजाठारणारिण मागमिकी दृष्टि से प्रावश्यक चूणि (पृ. ५६३ से ५६५) प्राप्य याणि, सोषि सावमो संतुट्ठो-पृ० ५६३ हैं। यद्यपि विशेषावश्यक भाष्य में भी उल्लेख है, किन्तु २. चाणक्के गोख विसए चणिग्गामो, तत्थ चरिणम्रो वहाँ जीवन प्रसंगों के प्रभाव में पार्मिक अनुबन्ध के बारे मे माहरणो, सो य सावनो।-पृ० ५६३