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. अनेकान्त -
राजा नन्द के विश्वासपात्र व्यक्तियो का क्रमशः उच्छेद, सम्मोषी धावक था।" कोश को अभिवृद्धि चादि का विस्तृत वर्णन है। प्रत्येक श्रावकत्व तथा निविणता: घटना में चाणक्य को दूरदर्शिता पूर्ण कूटनीति के वहाँ प्राचार्य हरिभद्र सूरि ने "उपदेशपद" में चाणक्य के स्पष्ट दर्शन होते हैं।
जोवन-प्रसंगों पर विस्तार से अनुचिन्तन किया है। उन्होने
वहाँ प्रत्येक घटना के हार्द को उद्घाटित किया है। वहाँ जेन श्रमणों का चाणक्य के पिता के घर प्रवास!
क घर प्रवासः चाणक्य के पिता चरणी का श्रावक' होना तथा उसके घर करना इस तथ्य की पुष्टि है कि चणा जन धर्म म परम पर समस्त परुष-लक्षणो के विज्ञाता साओ का प्रवासी निष्ठा रखने वाला विशिष्ट श्रावक था। जिस गृहस्थ के होली
होना उल्लिखित है। दन्त-घर्षण की कथा के अनन्तर मकान मे जैन श्रमण प्रवास करते हैं, उसे "शय्यातर" कहा चाणक्य के बारे में उन्होंने अपना अभिमत व्यक्त किया जाता है। शय्पातर का मुपोग श्रावकों में से भी किसी है-"कैशोर्य में प्रविष्ट होते ही वह अध्ययन मे निष्णात विरल व प्रमुख को ही मिलता है। चणी को अपने ग्राम हुपा । श्रावकत्व को स्वीकार किया और निविण्ण हमा। के श्रावको मे अग्रगण्यता से चाणक्य का जैन धर्म में वह परम सन्तुष्ट तथा आनन्दित था। निष्ठर सावध कायों संस्कारित होना नैगिक था।
के परित्याग में वह उत्सुक रहता था।
चारणका का श्रावकत्व, निविण्णता तथा सावध कार्यों चाणक्य में जहाँ धार्मिक संस्कार पैतृक परम्परा से से उपरति की सुचना जैन परम्परा की सबल पोषक है। पाये, वहाँ उसने तत्व-ज्ञान के पर्जन, सरक्षण व संवर्धन प्राचार्य हरिभद्र ने पावश्यक चूरिग की कथावस्तु को से उसमें अभिवृद्धि भी की। वन-धारक थावक का जहाँ समग्रता प्रदान की है। प्रावश्यक चूरिण में चन्द्रगुप्त के महत्व है, वहाँ तत्वज्ञान सम्पन्नता उसकी विशिष्टता को राज्यारोहण तथा प्रव्याबाध राज्य सचालन में चाणक्य की विशेष निखार देती है। चाणक्य श्रावक होने से परम कूटनीतिक सफल घटनामों का ही प्राकलन है। चाणक्य सन्तोगी तथा तत्वज्ञान में पारंगत भी था ।
के कैशोर्य की घटनामो के अतिरिक्त जीवन के अन्य प्रसंगों
में अधिकांशतः मौन हो साधा गया है। किन्तु प्राचार्य पावश्यक मलयगिरि वृत्ति प्रावश्यक चूमिण के प्रति
हरिभद्र सूरि ने इस प्रभाव को भरा है। उन्होंने समग्र पाच को विशेष पुष्ट करती है। वहाँ कथानक की समानता
जीवन पर एक अवलोकन प्रस्तुत किया है। इससे एनेक है. किन्तु चणी के श्रावकत्व को संदशित करने वाला एक नवीन रहस्यों का उदघाटन हो जाता है। विशेषण विशेषतः प्रयुक्त किया गया है। वहाँ कहा गया संघ-पालक तथा संघ-हित-चिन्तक : है-"चणी ब्राह्मण जीव-अजीव प्रादि नव-तत्वों का ज्ञाता प्राचार्य सम्भूत विजय' के समय एक बार भयङ्कर था।"
१. उमुक्त बालमावेण चौदसवि विज्जाठारणारिण प्राग
मियारिण, सोष सावगो संतुट्ठो।-पृ० ५३१ चाणक्य के बारे में वहां कहा गया है-"वह चौदह
२. नामेण चरणी तत्यासि भाहरणो सावगो सोय। प्रकार की विद्यानों एव तत्वज्ञान में निष्णात परम
-पृ० १०६ प्र० १. (क) तस्स घरे साह छिया। -प्रावश्यक चरण.
३. पढ़ियारिण सावगतं परिवन्नो मावनो निवित्रो।
अणुरूवा प्रहमद्दय माहगवंसुग्गया तेरण । पृ० ५३१०
परिणीया एगा कन्नगा य संतुट्ठ मारणसो परिणयं । (ख) नीसेस पुरिसलक्खरण वियारणगा सूरियो घरे तस्स
चिट्ठह निछर सावज परिवजणुज्जुतो।। कहवि बिहारवसानो ठिया सुमो तत्थ सृजाम्रो।
-पृ० १०६० -उपदेश पद, पृ०१०६० ४. चतुर्दशपूर्वी प्राचार्य यशोमा के उत्तरवर्ती तथा प्राचार्य २. तत्थ चरिणतो माहरणों, सो अवगय जीवाजीव उवलद्ध
भद्रबाह के पूर्ववर्ती प्राचार्य सम्भूत विजय से ये मिन्न
हैं। बाचार्य हेमचन्द्र ने परिशिष्ट पर्व में इस प्रसंग पर पुण्ण पावासव संबर निजराहिगरण बन्धपमोक्स
प्राचार्य सुस्थित का उल्लेख किया है। वहाँ कहा गया कुसलो।-पृ० ५३१
है-"प्राचार्यः सुस्थितो नाम चन्द्रगुतपुरेश्वसद।"