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* अनेकान्त - दुष्काल पड़ा। साधुपों को प्राहार-प्राप्ति दुर्लभ हो गई। अपराध को क्षमा करे। प्रब से प्रवचन (संघ) की सारी प्राचार्य सम्भूत विजय वृद्ध थे, अत: वे सुदूरवर्ती प्रदेश की चिन्तामों का निर्वहन मैं करूंगा।" पोर प्रस्थान न कर सके। किन्तु अन्य शिष्यों को उन्होंने ग्राचार्य सम्भत विजय का चाणक्य को संघ-पालक समुद्र के तटवर्ती प्रदेश में भेज दिया, जहाँ कि सुभिक्ष था। के रूप में सम्बोधित करना तथा चाणक्य द्वारा प्रवचन दो बालक साधुमो ने भी अन्यत्र विहार के लिये प्रस्थान (संघ) की सारी चिन्ताओं का भार अपने पर लेना, मात्र किया, किन्तु गुरु-भक्ति से प्रेरित होकर वे वापस पा गये। प्रौपचारिकता का ही सूचक नहीं है, अपितु जैन परम्परा प्राचार्य सम्भूत विजय किसी समय भावी प्राचार्य को मन्त्र- के साथ प्रगाढ़ता की गहरी अभिव्यक्ति है। तन्त्र विद्या का ज्ञान प्रदान कर रहे थे। दूर बठ हुए इगिनी मरण' अनशन : बालक साधुनों ने भी उन्हे सुनकर उनका गुप्त प्रभ्यास कर
कथा के विस्तार में प्राचार्य हरिमद्र ने चाणक्य की लिया । प्राहार की प्राप्ति से खिन्नता होने लगी। प्राचार्य सम्भूत विजय जो भी पाहार मिला, नससे पहले शिशु
अन्तिम जीवन झाँकी की प्रस्तुति भी बहुत रोचकता से की
है। उसमे हे हुए तथ्य चाणक्य के जनत्व की पुष्टि में साधुपो को सन्तर्पित करते । बचा-खुवा स्वय ख ते । पर्याप्त पाहार की प्राप्ति से उनका शरीर क्षीण होने लगा।
विशेष हेतुभूत हो जाते हैं । चाटुकारो तथा चुगलों ने राज
माता की हत्या के कृत्रिम अभियोग द्वारा बिन्दुसार को बालक साधुपों को चिन्ता हुपा । पाहार प्राप्ति का उन्होंने
चाणक्य के प्रति भ्रमित तथा विमुख कर दिया । चाणक्य अन्य प्रकार खोज निकाला। मन्त्र-बल से वे राजा चन्द्रगुप्त
उस समय तक वृद्ध हो चुका था। उपेक्षित तथा अपमानित के यहां पहुँच जाते और उसके लिये परोसे गये भोजन का
जीवन जीना उसको प्रकृति के विरुद्ध था। उसने जीवन गुप्त रीति से सहरण कर लेते। साधु तृप्त हो जाते, किन्तु
की प्राशा और मृत्यु के भय से उपराम लेने का निश्चय राजा चन्द्रगुप्त सदैव भूखा रह जाता। भूख से उसका भी
किया । “सभी स्वजनो से क्षमा याचना कर तथा स्वयं को शरीर कृश होने लगा। एक दिन चाणक्य ने चन्द्रगुप्त से प्रश्न किया तो उसने बताया, मेरे लिये परोसे हए थाल से
जिनेन्द्र धर्म में नियोजित कर वह अरण्यवर्ती गोकुल में
में पहुँचा। वहाँ उसने 'इगिनी मरण' अनशन प्रारम्भ भोजन का सहरण होता है। भूख के कारण कृशता तथा
कर दिया। दुर्बलता बढ़ती जा रही है। चाणक्य ने सूझ-बूझ से काम लिया। उसने रासाय
राजा बिन्दुसार को धाय-माता के द्वारा चाणक्य की निक प्रयोग के माध्यम से साधुनों का छद्म जान लिया। यथार्थता का जब ज्ञान हुमा, उसे बहुत पश्चात्ताप हमा। प्राचार्य सम्भूत विजय को निवेदन करने के अभिनय से वह चाणक्य को पुन: राज्य मे लौटने के लिये तथा पूर्ववत् वह उपाश्रय में पाया। उसने साधुमो को साधिकार उपा- राज्य-धुरा का वहन करने के लिये अनुनय करने के लिये लम्भ दिया। प्राचार्य सम्भूत विजय ने प्रतिवाद मे चाणक्य गोकुल मे पहुँचा। अपने अपराध को क्षमा मांगी तथा को कहा- 'तेरे जैसे संघ-पालक के होते हए भी यदि महामात्य का सम्मानित पद स्वीकार करने के लिये प्राग्रह क्षुधा से पीडित होकर ये साधु धर्मच्युत होते हैं तो यह तेरा करने लगा। चाणक्य ने स्पष्ट शब्दों में कहा-"सब प्रकार ही अपराध है, अन्य किसी का नहीं।"
१-नग्गो पाएसु इमो खामह प्रवराहमेगमेयमे । प्रांजलिपुट होकर चरणो में गिरते हए चाणक्य ने
एतो पमिई तया बिता मे पवपरणस्सावि ।१ पू० ११३ अपना अपराध स्वीकार किया और निवेदन किया- "मेरे
२-चतुर्विष प्राहार के प्रत्याख्यान पूर्वक अनशन के समय १-जात गुरुणा मरिणम्रोता सासरण पालगे सते ।१२६ प्रारक्षित क्षेत्र से बहिर्गमन न करना। ए ए छुहापरता निम्मा होउमेरिसायारा ।
३-खामित्ता सयाजणं जिरिणवषम्मे निमोजिऊरणं च। मोजाया सो सम्बो तवावरा हो म मन्नस्स ।१२७ रणो गोउलठाणे इंगिरिणमरणं पवनो सो ॥ १५१ -पृ० ११३५०
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