________________
. अनेकान्त .
के सगों से विप्रमुक्त होकर मैंने प्राजीवन अनशन' स्वीकार जिनेश्वर-वाणी को जानते हुए भी मोहरूप महाशल्य से मै कर लिया है। राज्य से मेरा प्रब क्या प्रयोजन ?" बीधा हपा रहा, अत: इस जीवन और भावी जीवन के
चाटुकार और पिशुन अमात्य सुबन्धु के द्वारा अपने विरुद्ध मैंने अनेक प्रवृत्तियां की। मेरा जन्म कैसा बीता ? विरोध में की गई सारी धूर्तता को चाणक्य जानता था, इस जन्म मे तथा अन्य जन्मों में किसी भी प्राणो को उत्तप्त पर उसने उस सम्बन्ध में राजा बिन्दुमार मे कोई उल्लेख किया हो तो वे मुझे क्षमा प्रदान करे। मैं भी उन्हें क्षमा नही किया।
प्रदान करता हूँ। राज्य-संचालन के समय पापाधीन होकर निराश राजा बिन्दुसार राजमहलो मे लौट पाया। मैने जिन अधिकरणो का संग्रह किया है, त्रिकरण तथा उसका मन खिन्न रहने लगा। अमात्य मुबन्धु ने मोचा, त्रिकाग पूर्वक उनका त्याग करता हूँ। राजा का प्राकर्षण चाणक्य के प्रति बढ रहा है। कही अग्नि ज्यो-ज्यो बल पकडती जा रही थी, त्यो त्यो ऐसा न हो जाये कि मेरी कलई खून जाये। उसने भी चाणक्य का शरीर भी उसमें उत्तप्त हो रहा था। साथ ही अवसर का लाभ उठाते हुए राजा से विज्ञप्ति को, यदि साथ उसके कर कर्म भी भस्मीभत हो रहे थे । शुभ भावना पापका प्रादेश हो तो महामात्य चाणक्य को प्रसन्न कर मैं युक्त परमेष्ठि पचक के स्मरण मे अनुरक्त, अविचल, समाधि राजधानी ले पाऊँ । राजा बिन्दुसार ने उसे प्रादेश प्रदान सम्पन्न उसने मृत्यु का वरण किया। स्वर्ग मे वह महद्धिक कर दिया। उसका अन्य षड्यन्त्र भी सफलता की ओर देव हमा।' बढ़ गया। सुबन्धु ने धूप से चाणकप का सम्मान किया भत्तपइण्णा२, सथारग पइन्ना तथा मरण विधि
और उसके चारो ओर फैले उपलो में उसे (धूप को) डाल भी उपरोक्त घटना तथा तथ्य की मुक्त पुष्टि करती हैं। दिया। उपलों ने प्राग पकड़ ली। वे धधकने लगे और चाणक्य का विरत होकर गोकुल मे पहुँचना वहां 'इगिनी चाणक्य के शरीर को परितप्त करने लगे।
मरण' प्रायोपगमन स्वीकार करना तथा मुबन्धु (मुबुद्धि) अन्तिम प्रआत्मालोचन :
द्वारा उसे भस्म करना प्रादि प्रसगो का विशद उल्लेख है। प्राचार्य हरिभद्र सूरि ने उस समय के चाणक्य के चाणक्य की अन्तिम जीवन झाँकी वस्तूत ही बहुत विशुद्ध परिणामो का बहत ही हृदयग्राही विवेचन किया मर्मस्पर्शी है। मगध के एकछत्र महामात्य को जीवन की
प विवेचन मे जैनत्व के गहरे संस्कारा का स्रष्ट १-उपवेशपब, गा० १५३ से १७. के प्राधार पर, पृ० झलक है। उन्होने लिखा है:-"उस समय चाणक्य की
११४ प्र० तथा ब. शुद्ध लेश्या थी। धार्मिक अनुचिन्तन मे वह अनुरक्त था।
२-गुट्टे पायोवगमो सुबंधुणा गोमए पलिविम्मि । वह सर्वथा अचल था। अग्नि मे सुलगते हुए भी उसका
उज्झन्तो चाणक्को पडिवनो उत्तम पढें ॥ मन अनुकम्पा से ओत-प्रोत था। उस समय वह अध्यात्म
-मत्त पइण्णा , गा० १६२ मे पूर्णत: लीन हो रहा था। उसके विचार उभर रहे थे
३-पाडलि पुत्तम्मि पुरे चारणक्को नाम विस्सुमो पासि । वे प्राणो धन्य हैं जिन्होने अनुत्तर मोक्ष स्थान को प्राप्त ।
सव्वारं मनिप्रत्तो इंगिरणी मरण प्रह निवन्नो ॥ किया है। वे किसी प्राणी के लिये दुःखद नही होते । मेरे
प्रणुलोम पूअरगाए ग्रह सा सत्तजनो डहइ बेह । जैसे प्राणी बहुत प्रकार के प्रारम्भ-समारम्भ मे प्रासक्त
सोवि तह डझमारणो पडिवन्नो उत्तमं अट्ठ । रहते हुए अपना जीवन पाप में ही व्यतीत करते है।
गुठटे पायोवगणो सुबन्धुणा गोमए पलिवियम्मि । १-परिवन्नाणसणो ह विमुक्कसंगो य बढामि । १५६ डझन्तो चाणक्को पडिसनों उत्तम अट्ठ -पृ० ११४ ५०
-सथारग पइण्णा , गा० ७३-७५ २- य नाऊण वि सिट्ठं सुबंधुदिवलसियं तया रो। ४-परिणीयताए कोई, प्रग्गि से सम्वत्ये पवेज्जाहि। चाणक्केए पेसुन्नकडुविवाग मुगतेग ॥ १६०
पादोवगए सन्ने, जह चारणकस्सय करोसे । -पृ० ११४ प्र.
-मरण विहि पइण्णा, गा० ५६६