________________
. भनेकान्त .
सन्ध्या में इतनी कड़वी घूट पीने के लिये विवश होना श्रवण कर उसने सब प्रकार के परिग्रह का परित्याग पडेगा, यह कल्पना से परे का प्रसङ्ग है। किन्तु उत्थान किया। अन्तिम समय में साधु बना। एक बार पांच सौ और पतन की क्रमभाविता का अपवाद चाणक्य भी न हो साधुप्रो के परिवार से दक्षिणापथ में विहरण करता हुआ सका। विवशता को भी मात्म-रति में परिणत करने की एक मरण्य मे पहुँचा। वहाँ गोकुल में कायोत्सर्ग पूर्वक प्रक्रिया जैन साधक जानते थे। ऐसी परिस्थिति में भी ठहरा। गोकुल के पूर्व में कोंचपुर था। सुमित्र वहाँ का जीवन से ऊबकर पलायन करने का मार्ग वे नही सोच राजा था। अमात्य सुबन्धु राजा नन्द को मृत्यु के अनन्तर सकते थे। 'इगिनी मरण' अनशन स्वीकार कर यही राजा सुमित्र की शरण में प्रा गया था। नन्द राज्य के प्रादर्श चाणक्य ने प्रस्तुत किया था। जीवित हो जब दाह पतन से सुबन्धु का चाणक्य के प्रति रोष का उभरना ने घेर लिया, विरोधी के प्रति सम परिणाम, विशुद्ध अध्य- सहज था। वह चाणक्य के पराभव के लिये उसके दुर्बल वसाय तथा प्रात्म-चिन्तन की उच्चता का जो विवेचन स्थानो की खोज मे था। मुनिवर चाणक्य के गोकुल में किया गया है, वह जैन परम्परा की एक उज्ज्वल कड़ी में प्रागमन के सवाद से राजा सुमित्र को प्रसन्नता हुई। वह गजसकुमाल, मेतार्य प्रादि मुनियो के बिरल उदाहरणो को अभिवन्दन के लिये पाया । धार्मिक पर्युपासना के अनन्तर तरह श्रायकों मे चारणक्य का भी विशिष्ट उदाहरण बन राजा नगर में प्रा गया। मुनि चारणक्य ने पादोपगमन गया है। इससे प्रतिभासित होता है, चाणक्य सामान्य अनशन प्रारम्भ कर दिया। मुबन्धु ने वहाँ उपलों को श्रावक न होकर दृढधर्मा, सर्वतः धर्मानुरक्त तथा भाव सगृहीत कर उनमे प्राग लगा दी। संयोग से सुबन्धु भी श्रावक था।
ज्वाला की चपेट में आ गया। उसकी भी वहाँ अन्त्येष्टि दीक्षा-ग्रहण :
हो गई। चाणक्य प्रभृति पांच सौ मुनियों ने शुक्ल ध्यान __वृसत्कथाकोष, कथानक संख्या १४३ में प्राचार्य की साधना करते हुए तथा उपसर्ग को सहन करते हुए हरिषेण ने चाणक्य के जीवन-प्रसगों का विस्तार में उल्लेख पादोपगमन युक्त समाधिमरण का वरण किया।" किया है । यद्यपि प्राचार्य हरिभद्र मूरि पोर प्राचार्य हरि- परिग्रह परित्याग के साथ दीक्षा ग्रहण एवं पादोपगमन पेण द्वारा महब्ध कथावस्तु में कुछ अन्तर पा जाता है, पर अनशन का स्वीकरण चाणक्य के जैनत्व को प्रमाणित चाणक्य के जैनत्व में कोई अन्तर नही पाता। प्राचार्य करने के सबल प्राधार है। हरिषेण के प्रभिमतानुसार तो अपने मान्ध्यकाल में चारणक्य सघ-परूष तथा प्रवचनोपहास-भीरू: भागवती जैनी प्रव्रज्या' स्वीकार करता है तथा पाँच सौ आचार्य हेमचन्द्र ने परिशिष्ट पर्व, अष्टम सर्ग में साधुपो के साथ शुक्र ध्यान में रमण करते हुए पदोपगमन चाणक्य और चन्द्रगुप्त के जीवन वृत्त पर विस्तार मे अनशन पूर्वक देहोत्सर्ग करता है। वृहत्कथा कोष के विमर्षण किया है। उन्होने चाणक्य के पिता चणी' अनुसार वह घटना क्रम इस प्रकार है-"नन्द राजा को ब्राह्मण तथा चाणक्य का थावक' होना म्पतः स्वीकार पराजित करने के अनन्तर चन्द्रगुप्त और चाणक्य ने पाटलि. किया है। परिशिष्ट पर्व की कथावस्तु का आधार प्राचार्य पुत्र का राज्य अधिगृहीत किया । लम्बे समय तक राज्य । हरिभद्र सूरि का उपदेश ही ज्ञात होता है। अन्तर इतना सचालन के अनन्तर चाणक्य विरक्त हुमा । जैन धम का ही है कि उपदेशपद की भाषा प्राकृत तथा शैली सक्षिप्त १-कृत्वा राज्यं चिरकालं अमिषिच्यात्र तं नरम् । है। परिशिष्ट पर्व की भाषा प्रांजल सस्कृत है तथा शैली
श्रुत्वा जिनोदित धर्म हित्वा सर्व परिग्रहम् ।७२ मे विस्तृति है। प्राचार्य हेमचन्द्र ने चाणक्य को धावक मतिप्रधान साध्वन्ते मह वैराग्यसंयुत्तः ।
१-बमूव जन्मप्रति भावकत्व चरणश्चरणी। दीक्षा जग्राह चाणक्यो जिनेश्वर निवेदिताम् ।७३
-मष्टम सर्ग, श्लोक १०५ २-चाणक्याख्यो मुनिस्तत्र शिष्यपंचशतः सह ।
२-चाणक्योपि भावको भूत, सर्वविद्याग्धि पारगः । पायोपगमनं कृत्वा शुक्ल ध्यानमुपेयिवान् ।८३
भमरणोपासकत्वेन स सन्तोष पनः सवा ।।