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-* अनेकान्त .
सम्बोधन के साथ २ सघपुरूष' प्रवचनोपहास भीरू विद्वानों की सूक्ष्म दृष्टि से उपयुक्त ग्रन्थों के ये स्पष्ट तथा निझरोद्यत प्रादि शब्दों से भी अभिहित किया है। मुखर अवतरण अब तक कैसे बच पाये, यह महान् पाश्चर्य चन्द्रगुप्त के लिये परोसे हुए थान से भोजन के सहरण को है। .माहार संविभाग बतला कर श्रावक के बारहवें अतिथि चाणक्य के बारे में अनुचिन्तन करते हुए परिव्राजकता संविभाग व्रत की ओर संकेत किया है। इस प्रसङ्ग पर यज्ञोपवीत, कमण्डलु, ब्राह्मणत्व प्रादि को तो पष्टिगत रखा चाणक्य ने प्राचार्य के उपपात मे यह अभिग्रह भी ग्रहण गया, किन्तु अन्य जीवन-प्रसङ्गों को नही । यही कारण हो किया था कि पाज से यथावश्यक प्राहार, पानी, उपकरण सकता है कि अब तक का अनुसन्धान और उससे फलित मादि श्रमण मेरे घर से ग्रण कर मुझे लाभान्वित करे। निष्कर्ष एकागी ही रहे। किसी भी व्यक्ति के गरे मे
संघपुरूष शब्द का प्रयोग सामान्य श्रावक के लिये नही चिन्तन करते समय यदि समग्र पहलुमो का विश्लेषण होता। उसमें धार्मिक योग्यता तथा प्रभाव-सम्पन्नता किया जाता है तो ऐतिहासिक सत्य के समीप सुगमता से अन्तर्भावित होती है। प्रवचन के उपहास से बचना तथा पहुंचा जा सकता है। निर्जरा के लिये उचत रहना धार्मिक सजगता का ज्वलन्त ब्राह्मणत्व, यज्ञोपवीत, परिव्राजकता प्रादि जैन उदाहरण है। पाहार-ग्रहण के लिये अभिग्रहपूर्वक निवेदन परम्परा के कभी भी विरोधी नहीं रहे। कहना चाहिये, ये करना भी जैन श्रमण सघ के साथ एकनिष्ठता का द्योतक सभी जैन परम्परा के अङ्ग बनकर रहे है। जैन विचार
धारा जातीयता में विश्वास नहीं करती। वह मानसिक चन्द्रगुप्त का जैनत्व :
पवित्रता को प्रधानता देती है, अतः वहाँ क्षत्रिय, ब्राह्मण, प्राचार्य हेमचन्द्र के अभिमनानुसार चन्द्रगुप्त को जैन वैश्य, शूद्र प्रादि जातियो का प्रश्न ही व्यर्थ है। विगत में बनाने में चाणक्य का महान् योगदाम था। चाणक्य ने अनेकानेक प्रभावक भाचार्य तथा विद्वान् मुनि ब्र चन्द्रगुप्त का केवल राजनैतिक मार्गदर्शन ही नही किया, से दीक्षित हुए हैं। प्रपितु धार्मिक मार्गदर्शन करके भी उसे पाखण्ड से बचाया मगध में जब से नन्दों का शासन काल प्रारम्भ होता था। चन्द्रगुप्त सहसा धर्म परिवर्तन करना नहीं चाहता
है, प्रथम नन्द की सूझ बूझ सम्पन्न एक महामात्य की था। चाणक्य ने प्रश्रेष्ठ तथा श्रेष्ठ धर्म के प्रत्यक्ष उदाहरण उपेक्षा हुई। कल्पक पर उसकी दृष्टि केन्द्रित हुई । नन्द ने प्रस्तुत किये । चन्द्रगुप्त को जब दृढ प्रत्यय हो गया, पूर्व कल्पक से महामात्य-मुद्रा ग्रहण करने का प्रत्य-त प्राग्रह धर्म का परिहार कर उसने जैन धर्म को स्वीकार किया, किन्तु धार्मिकता मे अग्रणी होने के कारण उस किया।
प्रस्ताव की सर्वथा अवगणना कर वह अपने निवास पर एक अवलोकन:
पा गया । नन्द ने फिर भी अपना प्रयत्न नहीं छोड़ा। एक पावश्यक चरिण, मावश्यक मलयगिरिवृत्ति, उपदेशपद, विशेष घटना-प्रसङ्ग पर विवश होकर कल्पक को महामात्य वृहस्कथा कोष भतपरिणा, मरण विधि, संथारग पहण्णा मुद्रा स्वीकार करनी पड़ी। कल्पक के पार्मिक अनुबन्ध के
राव पाटि नेकपाचीन पोटाश बारे में चिन्तन करते प्राचार्य हरिभद्र' तथा प्राचार्य स्वर से चाणक्य का जैनत्व स्वीकृत है। अनुसन्धाता हेमचन्द्र ने उनका जेनत्व प्रमाणित किया है। प्राचार्य
हेमचन्द्र ने तो कल्पक का श्रावकत्व उसी तरह का माना १-प्रष्टम सर्ग, इलोक ४११
है, जैसा कि सहोदर हो'। कल्पक के पिता भी जैन २-प्रष्टम सर्म, श्लोक ४०५ ३-मष्टम सर्ग, लोक ४५८
१-उपदेशपर, पृष्ठ ७३ प्र० से ७७० के प्राचार पर ४-उत्पन्न प्रत्ययः साकून गुरुन् मेनेच पार्थिवः
२-समर्भश्रावकत्वेन सदा सन्तोषधारकः । पावडिषु विरतो मूधिववेष्विव योगवित्
नपरिग्रह भूयस्वमनोरथमपि व्यवात् ।। -ब्रटम सर्ग, श्लोक ४३५
- परिशिह पर्व, सप्तम सर्ग, क्लोक २६