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________________ ऐतिहासिक नई शोध क्या चाणक्य जैन था ? -~-मुनि श्री महेन्द्रकुमार जी 'प्रथम अतीत का आधार: है। जैन विद्वान् इस छोर उदासीन रहे। इसी बीच प्रतीत श्रुति, स्मृति तथा ग्रन्थों के प्राधार पर जीवित सम्प्रदायवाद का प्रधान सम्प्रदायवाद को प्रधानता देकर चलने वाले कुछ विद्वानो रहता है। कुछ शताब्दियों तक वह श्रुति और स्मृति का ने अवसर का लाभ उठाया और जैन इतिहास को स्वरिणम माश्रय पाकर फलता फूलता रहता है और बाद में कर घटनामों को भाण्डागारों की परतों में दबाने में वे सफल प्रबुद्ध चेता उसे ग्रन्थों की परिधि मे डालकर घरोहर के हो गये। रूप में संजो देते है। भविष्य उसका अनुसन्धान करता है वर्तमान युग जैन विद्वानों में नये मृजन तथा प्रतीत के वतमान युग जन । और नाना फलितार्थ निकाल कर उसे सजाने सवारने का अनुसन्धान की अपेक्षा रखता है। पर, अपने भनेकान्त काम करता है । इस प्रक्रिया में कभी-कभी यथार्थता परतों इष्टिकोण को सुरक्षित रखते हुए वे इस दिशा में अग्रसर की तह में दबी रह जाती है और कभी-कभी वह प्रकट भी हो । साम्प्रदायिक व्यामोह में पड़कर तथ्यों को तोड़ मरोड़ हो । साम्प्रदायक व्या हो जाती है। कर अभिलषित मजिल को पाने का प्रयत्न उन्हे नही करना श्रुति और स्मृति के आधार पर पलने वाले प्रतीत के है और न उपलब्ध ठोस प्रमाणों को प्रस्तुत करते हुए कतसन्दर्भ में कई बार वक्ता की कुशलता के परिणामस्वरूप राने की भी अपेक्षा है। सत्य-प्राप्ति और उसको अनुभूति भी यथार्थता पर सघन वातावरण पड़ जाता है, जिसे दूर का हमारा लक्ष्य है और उसी भोर चरण-ग्यास पुनीत करने में अत्यन्त श्रम पपेक्षित हो जाता है । वह अपने । कर्तव्य है। वाक्-चातुर्य तथा सत्कालीन परिस्थितियो के समावेश से ऐतिहासिक सत्य की समीपता : नया ही रग दे देता है। पूल जहाँ का तहाँ रह जाता है। इतिहास का विद्यार्थी रहा है, अतः प्रत्येक घटना को कुछ समय बाद वहाँ स्व की मान्यता का रूढ अाग्रह तथ्यों उसी सूक्ष्म दृष्टि से देखने की वृत्ति हो गई है। जब तक को झुठलाता ही जाता है, जो तटस्थता का सर्वथा प्रति- सही निष्कर्ष उपलब्ध नही हो जाता, अनुसंधान की परिरोधी होता है । ऐसा ही कुछ जैन परम्परा के इतिहास के क्रमा चालू ही रहती है। साम्प्रदायिक मान्यताप्रो को साथ हुआ है। भगवान् महावीर से वर्तमान तक अनेक प्रहंमन्यता न देकर यथार्थता पाने को ही सदा सजग रहा शताब्दियाँ ऐसी बीती हैं, जो जैन इतिहास के स्वरिणम पृष्ठों है। प्रस्तुत उपक्रम में भी कुछ ऐसे तथ्यों की पोर विद्वानों की स्वयम्भू साक्षी है, पर उन्हें स्वीकार करने के लिये की हिमाकर्षित करना चाहेंगा, जो अनुसन्धान के परिवर्तमान युग के विद्वान् प्रस्तुत नहीं है। ढाई प्रजार वर्ष वेश में अभी तक समाविष्ट नहीं हो पाये है। मैं केवल की इस अवधि में जैन परम्परा में सैकड़ों-हजारों प्रमावक प्राप्त प्रमाणों को समुद्धत करना ही चाहूँगा और विद्वानों प्राचार्य, मुनि तथा श्रावक हुए हैं, जिन्होंने न केवल पार्मिक से अपेक्षा रखूगा कि वे पक्ष तथा द्विपक्ष में जो भी उस क्षेत्र में, अपितु राजनैतिक, सामाजिक एव शैक्षणिक क्षेत्र प्रमाण हों, प्रस्तुत करने का उपक्रम करे, जिसमे हम में नये कीर्तिमान स्थापित कर इतिहास को नया मोड़ ऐतिहासिक सत्य के समीप पहुँच सकें। दिया है, पर वह सब कुछ समय की परतों में दबता गया सन् ६८-६९ में मेरा चातुर्मास-प्रवास जयपुर में था।
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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