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________________ जैनधर्म का नीतिवाद ही नहीं, अपितु कल्याणकारी और प्रिय भी होना चाहिग। यौन-इन्द्रिय के साथ-साथ अन्य इन्द्रियों का भी संयम इसीलिए सत्य को सुनत भी कहा गया है। केवल ठीक आवश्यक है। अत: ब्रह्मचर्य से प्रयोजन वाह्य और अन्तः, सत्य मे अहकार, वाचालता, अश्लीलता आदि पा जाते । प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष सभी प्रकार के काम और कामवासना है। शिव और सुन्दर सत्य बोलने के लिए काम, क्रोध, का परित्याग है। और महाव्रतों के समान ब्रह्मचर्य भी मद, लोभ का सवरण करना प्राबश्यक है। तीसरा महा- केवल व्यक्तिगत व्रत नही, किन्तु सामाजिक सयम है। व्रत अस्तेय है। इसका अर्थ है किसी की वस्तु को उसके इसके पालन करने से जीवमात्र केवल हमारी वासना की दिये बिना ग्रहण न करना। इस महाव्रत मे जीवमात्र तृप्ति के साधन न रह कर समता, पवित्रता और आदर के अस्तित्व की पवित्रता के समान ही उनकी व्यक्तिगत के पात्र हो जाते है। सम्पत्ति की पवित्रता भी स्वीकार की गई है। किन्तु यहा 'द्रव्य संग्रह' नामक पुस्तक मे व्रतों की संख्या और व्यक्तिगत सम्पत्ति से मतलब अनियन्त्रित रूप से बल आर बढा कर दी गयी है, परन्तु उन सब का अन्तर्भाव इन्ही छल से उपाजित सम्पत्ति नही। सम्पत्ति के सचय मे भी मल पाच मदावतो हो जाता। दसरे के सत्य का ध्यान रखना आवश्यक है। मनुष्य का उपर्यक्त पांच महाव्रत नतिक आचरण की प्राचार अपने परिश्रम के बदले में ईमानदारी के साथ पारिश्रमिक शिला है। दना रिश्रामक शिला है। इनको कार्यान्वित करने के लिये 'तप' की मात्र लेने का अधिकार है। इससे अधिक ग्रहण करना व्यवस्था की गयी थी। तप का अर्थ, धर्म के पथ मे श्रम स्तेय अथवा चोर कर्म है। चौथा महाव्रत अपरिग्रह है। करना है। इसको करके ही मनुष्य 'श्रमण' हो सकता है। इसका शाब्दिक अर्थ है ग्रहण न करना। आचारान सूत्र तप दो प्रकार का बतलाया गया है- (१) बाह्म और मे इसकी और स्पप्ट परिभाषा को गई है। (२) प्राभ्यन्तर । बाह्य में (१) अनशन (२) अव'सभी इन्द्रिगम्य पदार्थों मे अनासक्ति अपरिग्रह है। मोदरिका (चान्द्रायण व्रत) (३) भिक्षाचयाँ (४) रसअपने इन्द्रियसुख के लिये आवश्यकता से अधिक पदार्थों का परित्याग (५) काय-क्लेश और (६) सलीनता सम्मिलित सग्रह करना सामाजिक कलह और संघर्षका कारण है। है। प्राभ्यान्तर तप मे (१) प्रायश्चित (२) विनय अनियत्रित सम्पति-सचय और पूजीवाद परिग्रह के परिणाम (३) वयावृत्य (सेवा) (४) स्वाध्याय, (५) ध्यान और है। अल्प सग्रह और व्ययसे ही समाज में आर्थिक समता (६) व्युत्सर्ग (विशिष्ट त्याग-शरीर त्याग) की गणना और सुख स्थापति हो सकते है । परिग्रह के पाप का प्राय- है । प्राभ्यन्तर तप संख्या (३) के अनुसार (१) प्राचार्य श्चित चौरकर्म से सचित की हुई सम्पत्तिका दान नहीं हो (२) उपाध्याय (३) स्थविर (४) तपस्वी (५) ग्लान सकता । व्यक्तिगत और सामाजिक कल्याण के लिये इस (रोगी) (६) शैक्ष और (७) सार्मिक सेव्य माने गये पाप से बचना होगा और इसका उपाय है परिग्रह (सचय) है। इनके अतिरिक्त (१) कुल (२) गण और (३) संघ को प्रवृत्ति का त्याग । भी सेवास्पद बतलाये गये है। तप के प्रकारो मे कुछ तो अन्तिम महाव्रत ब्रह्मचर्य है। सर्वसाधारण में इसका केवल भिक्षुओं और श्रमणो के लिये ही संभव है, किन्तु प्रचलित अर्थ यौन-सम्बन्ध से विरत होना है। परन्तु जैन अधिकाश सभी के लिये साध्य है। तप मे सेवा का एक धर्म के अनुसार ब्रह्मचर्य का अर्थ सभी प्रकार की काम- विशिष्ट स्थान है और उसका सामाजिक महत्त्व भी। वासना का परित्याग है। यह संभव है कि मनुष्य स्थूल जैन-धर्म अपने इस नीति-मार्ग के ऊपर अपना एकायौन सम्बन्ध से अपने को बचा ले, किन्तु इतने से ही वह धिकार नहीं मानता और न इस बात को मानता है कि ब्रह्मचारी नही हो सकता; उसका मन भीतर से विषय में कोई जैन धर्म की साम्प्रदायिक दीक्षा लेने से ही इस मार्ग आसक्त रह सकता है और वह अपने वचन, चेष्टा और से लाभ उठाकर कैवल्य प्राप्त कर सकता है। बिना इंगित से विषय का रसास्वादन कर सकता है। इसके साम्प्रदायिक भक्ति के ही संसार के कोई भी व्यक्ति अतिरिक्त विषय का अधिष्ठान सभी इन्द्रियो में है अतः इस मार्ग पर चल लाभ उठा सकता है। ईश्वर के स्थान
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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