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________________ १६४, वर्ष २६, कि० ४-५ अनेकान्त पर सम्प्रदाय और गुरुको रख दिया गया तो फिर मनुष्य अपनी आधुनिक बाह्य रूपरेखा की प्रतिक्रिया से मुझको का स्वातन्त्र्य कहाँ ? वह तो फिर ईश्वर के बदले एक छोटे भी जैनधर्म कुछ ऐसा ही दिखाई पड़ता था। परन्तु आज ईश्वर मनुष्य का दास हो गया। इसीलिये रत्नशेखरने बल-पूर्वक कह सकता हूँ कि उपर्युक्त आलोचना जैनधर्म अपने ग्रन्थ 'सम्बोध-सत्तरी मे' लिखा है,-"चाहे कोई की मूल भावना के सम्बन्ध मे अज्ञान का परिणाम है। श्वेताम्बर हो या दिगम्बर, बौद्ध हो या अन्य किसी भी जिसको श्री हापकिन्स महोदय जैनधर्म की दुर्बलता समझते धर्म सम्प्रदायका अनुयायी हो, यदि उसको आत्मा की है, मैं उसको जैनधर्म की शक्ति मानता हूँ। वास्तव मे समानता का बोध हो गया है-और व्यवहार मे सभी जिसकी ससार मे राजनैतिक, धार्मिक या बौद्धिक साम्राज्य जीवो को समान समझा है-तो बह कैवल्यका अधिकारी की स्थापना करना है उसको महा-मानव (सुपरमैन) है।" इस धर्म को मानने के लिये आत्मबल और सयम अथवा ईश्वर की आवश्यकता होगी, क्योकि उसकी कल्पना की आवश्यकता है। जिनमें ये साधन है वह सर्वत्र जिन- भी तो देवाधिपति या विश्वपति के रूप मे है, जिसे ससार विजयी हो सकता है। के असख्य मनुष्यों को लघु-मानव (सब ह्य मन) अथवा जैन-धर्म के नीतवादका केन्द्र मानव और उसकी पशु या यन्त्र समझ कर उनका शोषण और सत्त्वापहरण अभिव्यक्ति समस्त प्राणिमात्र में समदष्टि से प्रेरित जीव- करना है उनके लिये मानव और मानव पूजा का क्या दया है। इस धर्म के कुछ एकागीण पथिको को देख कर महत्त्व ? और जिनके उदर कोटि-कोटि जीवधारियो के कतिपय विद्वानों में इस धर्म के सम्बन्धों में भ्रम उत्पन्न शरीर के लिये नित्य कव्रगाह और श्मशान बन रहे है हो जाता है। प्रसिद्ध प्राच्यविद्या-विशारद श्री हापकिन्स ने उनके सामने जीव-दया की क्या उपयोगिता? परन्तु जैन अपने ग्रन्थ 'रेलिजन्स् आफ इण्डिया' (पृ. २६७) में धर्म तो धर्म और श्रेयका मार्ग है; प्रेम, सङ्कर्ष, कलह, लिखा है, "जैनधर्म एक ऐसा धर्म है जिसके मुख्य सिद्धान्त युद्ध और इनसे उत्पन्न दुःखका प्रवर्तक नही । यदि मनुष्य जिन पर विशेष बल दिया गया है, ये हैं-(१) ईश्वर में को एक तरफ देवत्व और दूसरी तरक दानवत्व छोड़कर अविश्वास, (२) मानव पूजा और (३) कीड़ों मकोड़ों 'मानव' बनना है तो उसको जन-धर्म की उपयोगिता का पोषण ।" ये शब्द व्यंग में लिखे गये है। मैंने इस स्पष्ट दिखाई पड़ेगी। पुस्तक को प्रथम प्राज से अठारह वर्ष पहले पढा था। स्त्रियों का आदर हमारे देश में जब उन्नति हो रही थी तब स्त्रियों का खूब मादर था और वे शिक्षित थीं। किन्तु जबसे उनका पावर कम हुमा, शिक्षा भी कम हो गई है तभी से अवनति ने यहां प्रवेश किया है। इसलिए यह कहना ही ठीक बचता है कि प्रशिक्षण के रिवार पर लात मार कर स्त्रियों को खूब शिक्षित करना हमारे लिए पथ्य है । दूसरा कोई भी मार्ग हमारे कल्याण का नहीं है। बहुत पुराने जमाने को जाने दीजिए, महावीर के जन्म का केवल ढाई हजार बर्ष ही बोते हैं। उनके पिता अपनी पत्नी का सामावर करते थे?
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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