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________________ उत्थान-पतन १९७ मदिर न ले जा सकी। और तभी उसने आदेश दिया--रथ ग्राज वसन्तोत्मव है। अयोध्या के राजपथ और बन की ओर चलेगा । कामी युवको के मन पर यह आदेश वीथियाँ नर-नारियो से मकुल है। बुद्धिपणा के प्रासाद ने उल्का पात बनकर टूटा। किन्तु आदेश का पालन किया प्रकोष्ठ में और बाहर अमख्य युवक मल्लिका और यूथिका गया । देवी एक योद्धा की तरह युद्ध विजय की लालमा की मालाएं लिए खड़े है। वे देवी की प्रतिक्षा में अधीर मन में छिपाए बढ रही थी असीम विश्वास के साथ । होर रहे है। वे देवी के दर्शनो के लिए प्राकुल है। जब देवी बुद्धिपणा सम्पूर्ण शृगार के साथ अपने शिलातल पर एक दिगम्बर मनि विराजमान थे। स्वर्णरथ की पोर वढी तो युवक दल ने उस पर पुष्प उनके नेत्री से अनन्त करुणा प्रवाहित हो रही थी। मख बरसाये । पुष्प मालायो से उसका रत्नहार ढक गया। पर बीतरागिता का लावण्य विखर रहा था और एक फलो की मालानो मे वह ऐसी लग रही थी मानो कोई दिव्यप्रभा मण्डल प्रभासित था। जिमसे दूसरे के मन में वाग्देवी ही अवतरित हुई हो। अानक नहीं, किन्तु आश्वासन मिलता था। अमख्य श्रोता युवक-दल में रथ खीचने के लिए स्पर्धा सी हो गयी। जन श्रद्धा के माथ उसकी अमृतवाणी का प्रास्वादन कर मार्ग में लोग देवी का अभिवादन करते और देवी मम्कुग रहे थे । कर उसे ग्रहण करती । और यो देवी का रथ राजपथो पर रूप गविता बुद्धिपणा का विश्वास था कि उसके होकर मदन मदिर की ओर जा रहा था। पहुंचते ही सारे नागरिक सम्मान के माथ उठ खड़े होगे किन्तु नगर के बाहर मदनोद्यान में बने मदन मदिर पीर वह माधु तो-। की ओर जाने की बजाय, उस मार्ग पर अधिक भीड़ जा किन्तु जब वह पहुची तो वहाँ कोई चचलता न दीख रही थी, जो वन की ओर गया था। देवी को बडा कौतूहल पड़ी। सब कुछ शान्त था । श्रोताओं ने उसकी ओर लक्ष्य हुअा। आज उसके विजयोल्लाम का दिन है। आज वह तक न दिया। इमसे उमका अभिमान मर्माहित हो उठा। फिर एक बार नगर की सभी ललनामों पर अनिन्द्य मौन्दवं वह उद्धतभाव से अपने गौरव का स्मरण कर मबसे के कारण विजय प्राप्त करेगी। युवक-वर्ग एक बार फिर आगे जा बैठी। एक अोर सबको प्रशकित करता उच्छ ग्खल उसकी मुस्कराहट पर लोट-पोट होगा। राजन्यवर्ग उसके बरसाती नाला बह रहा था और दूसरी पोर गुरु गम्भीर मादक नृत्य से फिर एक बार झूम उठेगा किन्तु वह कौनसा ममद्र गबको अभिभूत कर रहा था। वासना का ऊट आकर्षण है। जिससे प्रेरित होकर ये नरनारी उसके उत्सव बीतरागता के पहाड़ के नीचे आकर अपनी ऊँचाई नापने को टकराकर निर्जन नीरम बन की ओर अभिमुख हो रहे में लगा था। है। उसके मन पर ईर्ष्या की एक गहरी रेखा विच गई। मनिराज उपदेश दे रहे थे--मानव जीवन का लक्ष्य इस रहस्य को सुलझाए बिना उको चैन न मिलेगा। क्या है? ग्रापने कहा-मानव जीवन मनभ ग्रऔर गरज उसने अपनी परिचारिका मदन लेखा से इसका कारण प्राप्य नही है। इमलिए इसका अधिक से अधिक मुन्दर जानना चाहा तो मदन लेखा ने ससभ्रम उत्तर दिया- उपयोग करना है। इसका उपयोग वासना में नही करना देवी ! प्रीतंकर नाम के एक दिगम्बर जैन मुनि वन प्रान्त भोगो मे नही करना है। इनमे तो मानव जीवन का सारा मे विराजमान है। उसके दर्शन-उपदेश के लिए ही सारा रस ही सूख जाएगा । राज परिवार और नागरिक जन उधर जा रहे है। बुद्धिषेणा ने समझा-यह मेरे ऊपर व्यंग्य है। वह बुद्धिपणा के रूप को यह चुनौती थी। उसका पाहत अपना आवेग न रोक मकी और बोली-लेकिन वामना गर्व फुकार उठा-प्रोह ! नगटे साधु को मेरे साथ स्पर्धा मे तो स्पष्ट सुख है। प्रत्यक्ष सुख को छोड़कर अप्रत्यक्ष करने की धोस । बुद्धिपणा की सारी रूपराशि व्यर्थ हो मुख की कल्पना में कष्ट उठाना तो बुद्धि मानी नहीं है। जाएगी, यहि वह इस नंगटे को अपने वश में करके मदन श्रोताओं के मुख विकृति से सिकुड़ गए।
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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