________________
दीवान रूप किशोर जैन को सार्वजनिक साहित्य सेवा
२२५
वंशजों से उनकी अप्रकाशित और जैन सम्बन्धी रचनाओं प्रत्येक भाषा मे उनकी लिखावट बहत सन्दर होती का पता लगाना चाहिए। उनकी जीवनी के सम्बन्ध मे थी। सम्पन्न जमींदार का पुत्र होने के कारण उन्हें सब भी खोज करने पर बहत सी महत्त्वपूर्ण बातें उनके वंशजों प्रकार की सुविधाएं प्राप्त थीं, इसलिए उनका सारा और साथियों से मिल सकती है, उनको भी प्रकाश में जीवन लिखने-पढ़ने में ही बीता। उन्होने १९०६ मे पायलाना चाहिए। अन्तिम दिनो मे वे अपने पुत्रों के पास र्वेद का अध्ययन किया और १७०७ मे फोटोगावी दिल्ली चले पाये और वहीं रहते थे अतः दिल्ली में उनके सीखी। एक प्रकार से वे एक कुशल चित्रकार थे। पायपूत्रों से सम्बन्ध स्थापित करने पर नई और ज्ञातार्थ जान-वंद उन्होंने पीडित वर्ग को औषधि देने के लिए सीखा कारो अवश्य ही सहज रूप से प्राप्त हो सकती है। आशा था। है इस पोर शीघ्र ध्यान दिया जायगा।
दीवान रूपकिशोर का हृदय बडा संवेदनशील था। दोवान रूपकिशोर जैन
कहते हैं कि एक बार एक किसान को बेदखल किया गया। हिन्दी के शैशवकाल मे जिन साहित्यकारों ने उसे क्योंकि उस पर दस हजार रुपया बकाया था। वह अपने जन-जन तक पहुंचाया और अनुवाद एवं मौलिक ग्रन्थों पूरे परिवार के साथ विजयगढ़ पा गया और गिड़गिड़ाने की रचना कर उसे समृद्ध बनाया, उनमें 'अलिफलला' के लगा। दीवानजी ने न केवल उसे माफ ही कर दिया, बल्कि प्रथम हिन्दी अनुवाद दीवान रूपकिशोर का नाम भी एक गाय देकर उसे बिदा किया। उसके बाद उन्होंने उल्लेखनीय है। स्व० दीवान रूपकिशीर, मुशी प्रेमचन्द के किसी किसान पर जोर जबर्दस्ती नहीं की। समकालीन थे। उर्द 'जमाना' पर प्रेमचन्द 'नवाबराय' जमीदारी के कार्य की देखभाल के साथ-साथ उनका उपनाम से लिखते थे। उसी पत्र मे दीवानजी की 'किशोर' माहित्य सजन चलता रहा। उन्होंने कुल मिलाकर ६० नाम से लिखा करते थे। जिस प्रेमचन्द ने उर्दू से हिन्दी पुस्तकों की रचना की। कहानियाँ, नाटक, उपन्यास जगत मे पाकर ख्याति प्राप्त की, उसी प्रकार दीवानजी
सम्बन्धी सभी क्षेत्रो में कलम उठाकर अपनी प्रतिभा का ने भी पहले उर्दू मे और फिर बाद मे हिन्दी मे लिख। परिचय दिया। १९०६ मे उन्होने 'चारुबाला' नामक ओर पाणीवन हिन्दी की सेवा में जुटे रहे।
उपन्यास उर्दू भाषा मे लिखा जो अप्राप्य है। इसी वर्ष दीवान रूपकिशोर का जन्म अलीगढ़ जिले के एक प्रसिद्ध 'गलशन ए किशोर' लिखा। उनके द्वारा हिन्दी भाषा में कस्बे विजयगढ में १३ जून १८८४ को हुआ । उनके पिता १३ उपन्यास बताये जाते है, जो सुनील कन्या (१९१४), दीवान इन्द्रप्रसाद जिले के प्रतिष्ठित व्यक्तियों में से थे और सूर्यकुमार सम्भव (१९१५), भारतीय वीरांगणा, शील उनकी गणना ताल्लुकेदारों में होती थी। बालक रूप- प्रबोध, अवंति कुमारी. कुदसियर बेगम, घूघट वाली तथा किशोर ने १८६० मे पढ़ना प्रारम्भ किया। उन्हे अरबी श्रीदेवी । फारसी भाषा की प्रसिद्ध पुस्तक जो एक हजार
और फारसी सिखाई गई । १८९७ में उन्होने हिन्दी पढ़ना पृष्ठों की बताई जाती है। 'अलिफ लैला का हिन्दी मे प्रारम्भ किया और कुशाग्र बुद्धि होने के कारण शीघ्र ही अनुवाद किया। यइ अनुवाद काफी लोकप्रिय हुआ। उनमे दक्ष हो गये।
___'बारहमासी' रूपकिशोर नामक काव्य और 'किशोर तत्कालीन परिस्थितियो और उच्च घरानों की पर- पूणिमा' कहानी संग्रह भी उन्हीं की रचनाएं है । उन्होंने म्परा के अनुसार उनकी शिक्षा घर पर ही अधिक हई। कुलल्लु वैद्यराज ( रूपक ) और सब्जपरी, गुलफाम मिडिल पास करने के बाद वे निरन्तर स्वाध्याय में लगे (स्वांग) भी लिखे । ज्योतिष, शरीर विज्ञान प्रादि पर भी रहे और उन्होने अरबी, फारसी तथा हिन्दी का सम्यक उनकी रचनाएं मिलती है। इस प्रकार १९०१ से लेकर जान अजित किया। शरत और टैगोर का अध्ययन करने १९२५ तक उन्होंने लिखना जारी रखा। उनके लेख उस क लिए उन्होंने बंगला भाषा सीखी। इस प्रकार कुल समय की पत्र-पत्रिकाओं में स्थान पाते रहे। मिलाकर वे दस भाषाएँ जानते थे ।
(शेष पृ० २३२ पर)